गुनाहों का देवता -धर्मवीर भारती (समीक्षा-1)

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गुनाहों का देवता -धर्मवीर भारती (समीक्षा-1)
लेखक धर्मवीर भारती
मूल शीर्षक गुनाहों का देवता
प्रकाशक भारतकोश पर संकलित
देश भारत
पृष्ठ: 80
भाषा हिन्दी
विषय गुनाहों का देवता की समीक्षा से जुड़े आलेख
टिप्पणी आलेख संकलक: अशोक कुमार शुक्ला

गुनाहों का देवता: 50 बरस: सौ संस्करण

आलेख
प्रेमचन्द गांधी

हिंदी में अगर साहित्य की लोकप्रिय किताबों की बात की जाए तो धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ शीर्ष दस पुस्तकों में होगा। भारत की विभिन्न भाषाओं में इसके सौ के क़रीब संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और युवा वर्ग में आज भी यह ख़ासी लोकप्रिय किताब है। इस लोकप्रियता का कारण अगर इसकी बेहद रोमांटिक प्रेम कहानी है तो इसके बरक्स प्रेम का एक उदात्त और बलिदानी स्वरूप भी है। इस उपन्यास की जितनी लोकप्रियता है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि हिंदी में इससे ज्यादा लोकप्रिय उपन्यास की चर्चा करेंगे तो एक के बाद एक कई नाम आते चले जाएंगे और बावजूद इसके ‘गुनाहों का देवता’ की पसंदगी अपनी जगह कायम रहेगी। इस पसंदगी के कारण जुदा हो सकते है, लेकिन बहुत से ऐसे लोग भी मिल जाएंगे जो एक ख़ास वक्त में इसे पसंद करते थे, लेकिन अब यह उन्हें नहीं रूचता। खुद धर्मवीर भारती ही इस बात को कभी नहीं समझ पाए कि इसकी अपार लोकप्रियता के पीछे क्या कारण रहे।

प्रेम का निष्छल रूप उर्फ प्लेटोनिक लव की अवधारणा

जब यह उपन्यास प्रकाशित हुआ तब पूरे देश में आदर्शवाद की जबर्दस्त धूम थी। छठे दशक की किसी भी कला संस्कृति की विधा को ले लीजिए हर तरफ आदर्शवाद ही दिखाई देता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग तुरंत बाद के इस परिदृश्‍य में एक अजीब किस्म का जोश और जुनून था जिसमें बहुत कम लोग थे जो अंग्रेजों से मुक्ति के मोहभंग को यथार्थ में चित्रित कर रहे थे। नेहरूयुगीन आशावाद का एक जोम था, जिसमें पूरा देश बह रहा था। धर्मवीर भारती भी उस परिदृश्‍य के ही एक पात्र और कलाकार थे। वे उससे अलग कैसे रह सकते थे? आजादी के बाद के इस कालखण्ड में जो महत्वपूर्ण किताबें सामने आईं उनमें से अधिकांश में आत्मबलिदान को लेकर एक विचित्र किस्म का व्यामोह था। हर कोई कुरबान होना चाहता था, लेकिन किसी को पता नहीं था कि किस पर कुर्बान होना है। कोई अपनी कला पर कुर्बान था तो कोई अपनी प्रेमिका पर और बाकी सब किसी ना किसी मकसद को लेकर। बलिदानी होने की कामना कोई बुरी बात नहीं, लेकिन दिक्कत तब होती है जब आपके सामने कोई ठोस आदर्श नहीं हो। यह उपन्यास उसी दौर की कथा है जिसमें आदर्श का कोई एक स्वरूप नहीं था और सच्चाई यह भी है कि यथार्थ में आदर्श का कोई एक मानक और ठोस रूप हो भी नहीं सकता। और प्रेम में तो आदर्श वक्त के साथ बहुत तेज़ीसे बदलते रहते हैं। इसलिए भारती जी के युवावस्था में लिखे इस उपन्यास में एक यूटोपियाई प्रेम है। दो युवा दिलों के बीच पनपने वाला अव्यक्त किस्म का प्रेम, जिसे दोनों जानते तो हैं, पर अनजान भी बने रहते हैं और एक दूसरे को बस किसी प्रकार सुखी देखना चाहते हैं। जिसे अंग्रेजी में प्लेटोनिक लव कहते हैं, जिसमें दैहिक संबंध के बिना अपने प्रेम का चरम रूप दो प्रेमी दिखाना चाहते हैं। चंदर और सुधा ऐसे ही प्रेमी हैं।

भोली नायिका का आदर्श बनाम प्रेक्टिकल ईसाई लडकी

सुधा के रूप में धर्मवीर भारती ने एक मासूम, चंचल, शोख और भोली नायिका का आदर्ष चरित्र गढ़ा, जिसके लिए चंदर अपने आपको बलिदान कर देता है। इसके बरक्स भारती जी ने पम्मी के रूप में एक व्यावहारिक युवती का चरित्र रचा, जो एक आजाद खयाल युवती है, लेकिन उसके भी अपने आदर्श हैं। वह भी देह से परे के प्रेम को महत्व देती है। लेकिन चंदर और पम्मी की पहली रोमांटिक मुलाकात को भारती जी इस वाक्य से खत्म कर बहुत कुछ कह देते हैं, जो दृश्‍य में नहीं कहा जा सकता था। ‘पम्मी उठी, वह भी उठा। बांस का मचान हिला। लहरों में हरकत हुई। करोड़ों साल से अलग और पवित्र सितारे हिले, आपस में टकराए और चूर-चूर होकर बिखर गए।’ पम्मी का आदर्श प्रेम और चंदर की पवित्रता क्या इस वाक्य में टूट कर बिखरते नहीं दिखाई देते। अंत में जाकर चंदर सुधा के सामने स्वीकार भी करता है, जब वह कहता है, ‘लेकिन तुमसे एक बात नहीं छिपाउंगा। वह यह कि ऐसे भी क्षण आए हैं जब पम्मी के समर्पण ने मेरे मन की सारी कटुता धो दी है..।’ पम्मी के प्रेम का फलसफा यह है कि आदर्शवादी प्यार की प्रतिक्रिया सेक्स की ही प्यास में होती है। चंदर को लिखे अपने अंतिम पत्र में पम्मी कहती भी है, ‘मैं जानती थी कि हम दोनों के संबंधों में प्रारंभ से इतनी विचित्रताएं थीं कि हम दोनों का संबंध स्थायी नहीं रह सकता था, फिर भी जिन क्षणों में हम दोनों एक ही तूफान में फंस गए थे, वे क्षण मेरे लिए मूल्य निधि रहेंगे।’

मध्यवर्ग की ढुलमुल मानसिकता और प्रेम का यथार्थ

अनिर्णय निम्न मध्य वर्ग की चारित्रिक विशेषता है, जिसे चंदर के व्यक्तित्व में बखूबी देखा जा सकता है। प्रेम में समर्पण और बलिदान में से उसने बलिदान को चुना और इस चुनाव ने दो युवाओं को दूर कर दिया। वह बेहद प्रतिभाशाली है, सुधा के पिता उसे पसंद भी करते हैं, लेकिन दो भिन्न जातियों के बीच कैसे एक संबंध विवाह तक पहुंच सकता है? इस पर सुधा के पिता का मौन बहुत कुछ कह देता है। वे भी तो उसी मध्यवर्गीय मानसिकता के शिकार हैं, जो छठे दशक में एक आदर्श समाज की परिकल्पना में सामाजिक जीवन में कोई बदलाव नहीं चाहता था। यथार्थ में घट रहे प्रेम को अनदेखा कर आदर्शवादी और आज्ञाकारी बना रहना इस उपन्यास के तमाम पात्रों की चारित्रिक विवशता है। प्रेम का आदर्श स्वरूप क्या हो इस पर हर कालखण्ड में बहस चलती रहती है। धर्मवीर भारती के इस उपन्यास की लोकप्रियता के बहुत से कारणों में संभवतः यह सबसे महत्वपूर्ण कारक है, कि इस उपन्यास में युवा मन, प्रेम और सेक्स को लेकर पहली बार इतनी खुलकर चर्चा की गई, जिसमें सामाजिक बंधनों के साथ एक आदर्शवादी प्रेम को ही अंतिम सत्य के तौर पर प्रतिष्ठित किया गया। इसीलिए सामान्य घर-परिवारों में माता-पिता ने इस उपन्यास को अपने अपनी संतानों के लिए वर्जित नहीं किया। मनुष्य को वैसे भी आदर्श अच्छे लगते हैं, इसलिए ‘गुनाहों का देवता’ हर काल में पसंद किया गया और किया जाता रहेगा।

देवदास का शाकाहारी संस्करण

जिन लोगों ने इस उपन्यास को अपनी युवावस्था में पढ़ा, उन्हें बीस-तीस बरस बाद अगर यह उपन्यास पढ़ने को दिया जाए तो अधिकांश को इसमें एक विचित्र बचकानापन नजर आता है। खुद भारती जी भी इसे कलात्मक रूप से अपरिपक्व उपन्यास मानते थे। इसमें बहुत से ऐसे विवरण हैं, जिन्हें अगर हटा दिया जाए तो भी इसकी कथावस्तु पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उपन्यास में कई जगह अति भावुकता है, कोरा आदर्शवाद है। मेरे जैसे कई पाठकों को यह शरत चंद्र के ‘देवदास’ का शाकाहारी संस्करण लगता है। जहां देवदास प्रेम में नाकाम होकर शराब की शरण में जाता है यानी एक भटकाव में जीता है, वहीं चंदर भी अनिर्णय में भटकता है। पारो की तरह सुधा भी अपने प्रेम के लिए कुछ नहीं कर पा सकने के लिए विवश है और अंत में दम तोड़ देती है। चंद्रमुखी की तरह पम्मी चंदर को राह पर लाने की कोशिश में खुद अपने पति के पास चली जाती है। देवदास और चंदर में फर्क इतना है कि देवदास की भांति चंदर आत्महंता बनने के बजाय सुविधाजनक राह पर चलते हुए बिनती के साथ ज़िंदगी गुजारने के लिए चल देता है। एक फिल्मी किस्म का समापन होता है, जिसमें अंत में सुधा की मृत्यु के बाद सब अपनी राह पर सुखी जीवन जीने के लिए चल पड़ते हैं और इन सबके पास एक आदर्श भरी दुनिया का स्वप्न है।

एक ना बन सकी फिल्म

इस उपन्यास की लोकप्रियता को भुनाने का एक फिल्मी प्रयास भी हुआ। अमिताभ बच्चन और रेखा को लेकर एक फिल्म का निर्माण शुरु हुआ था ‘एक था चंदर एक थी सुधा’ के नाम से। यह हिंदी सिनेमा का दुर्भाग्य ही है कि साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्में प्रायः अधबीच में ही दम तोड़ देती हैं। इस फिल्म के साथ भी यही हुआ, कुछ रीलें बनीं और फिर फिल्म डिब्बे में बंद हो गई। इसकी शूटिंग इलाहाबाद में हुई थी, जिसमें अमिताभ पर इलाहाबाद में साइकिल चलाने के दृश्‍य फिल्माए गए थे। एक पूरा गाना भी रफी की आवाज में रिकार्ड किया गया था, जिसे बाद में अधूरी फिल्मों के टुकड़े जोड़कर बनाई गई ‘फिल्म ही फिल्म’ शीर्षक फिल्म में इस्तेमाल किया गया।

(यह आलेख जयपुर से प्रकाशित 'डेली न्‍यूज़' के रविवारीय परिशिष्‍ट 'हम लोग' में 20 दिसंबर, 2009 को प्रकाशित हुआ।)

आगे पढ़ने के लिए गुनाहों का देवता-2 पर जाएँ


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