अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 03:16, 24 October 2010 by रेणु (talk | contribs) ('खड़ी बोली को काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने वाल...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

खड़ी बोली को काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने वाले कवियों में अयोध्यासिंह उपाध्याय का नाम बहुत आदर से लिया जाता है। आपका जन्म ज़िला आजमगढ़ के निज़ामाबाद नामक स्थान में सन् 1865 ई. में हुआ था। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में 1890 ई. के आस-पास आपने साहित्य सेवा के क्षेत्र में पदार्पण किया। आपकी मृत्यु 1947 ई. में लगभग 76 वर्ष की आयु में हुई।

=कृतियाँ

यह आरम्भ में नाटक तथा उपन्यास लेखन की ओर आकर्षित हुए। इनकी दो नाट्य कृतियाँ 'प्रद्युम्न विजय' तथा 'रुमिणी परिणय' क्रमश: 1893 ई. तथा 1894 ई. में प्रकाशित हुईं। 1894 ई. में ही इनका प्रथम उपन्यास 'प्रेमकान्ता' भी प्रकाशन में आया। बाद में दो अन्य औपन्यासिक कृतियाँ 'ठेठ हिन्दी का ठाठ' (1899 ई.) और 'अधखिला फूल' (1907 ई.) नाम से प्रकाशित हुई। ये नाटक तथा उपन्यास साहित्य के उनके प्रारम्भिक प्रयास होने की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। इन कृतियों में नाट्यकला अथवा उपन्यासकला की विशेषताएँ ढूँढना तर्कसंगत नहीं हैं।

खड़ी बोली के प्रथम महाकवि

उपाध्याय जी की प्रतिभा का विकास वस्तुत: कवि रूप में हुआ। खड़ी बोली का प्रथम महाकवि होने का श्रेय इन्हीं को है। 'हरिऔध' के उपनाम से इन्होंने अनेक छोटे-बड़े काव्यों की सृष्टि की, जिनकी संख्या पन्द्रह से ऊपर है-

  • 'रसिक रहस्य' (1899 ई.),
  • 'प्रेमाम्बुवारिधि' (1900 ई.),
  • 'प्रेम प्रपंच' (1900 ई.),
  • 'प्रमाम्बु प्रश्रवण' (1901 ई.),
  • 'प्रेमाम्बु प्रवाह' (1901 ई.),
  • 'प्रेम पुष्पहार' (1904 ई.),
  • 'उदबोधन' (1906 ई.),
  • 'काव्योपवन' (1909 ई.),
  • 'प्रियप्रवास' (1914 ई.),
  • 'कर्मवीर' (1916 ई.),
  • 'ऋतु मुकुर' (1917 ई.),
  • 'पद्मप्रसून' (1925 ई.),
  • 'पद्मप्रमोद' (1927 ई.),
  • 'चोखेचौपदे' (1932 ई.),
  • 'वैदेही बनवास' (1940 ई.),
  • 'चुभते चौपदे',
  • 'रसकलश' आदि।

सर्वाधिक प्रसिद्धि

हरिऔध को कवि रूप में सर्वाधिक प्रसिद्धि उनके प्रबन्ध काव्य 'प्रियप्रवास' के कारण मिली। 'प्रियप्रवास' की रचना से पूर्व की काव्य कृतियाँ कविता की दिशा में उनके प्रयोग की परिचायिका हैं। इन कृतियों में प्रेम और श्रृंगार के विभिन्न पक्षों को लेकर काव्य रचना के लिए किए गए अभ्यास की झलक मिलती है। 'प्रियप्रवास' को इसी क्रम में लेना चाहिए। 'प्रियप्रवास' के बाद की कृतियों में 'चोखे चौपदे' तथा 'वैदेही बनवास' उल्लेखनीय हैं। 'चोखे चौपदे' लोकभाषा के प्रयोग की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। 'प्रियप्रवास' की रचना संस्कृत की कोमल कान्त पदावली में हुई है और उसमें तत्सम शब्दों का बाहुल्य है। 'चोखे चौपदे' में मुहावरों के बाहुल्य तथा लोकभाषा के समावेश द्वारा कवि ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह अपनी सीधी सादी जबान को भूला नहीं है। 'वैदेही बनवास' की रचना द्वारा एक और प्रबन्ध सृष्टि का प्रयत्न किया गया है। आकार की दृष्टि से यह ग्रन्थ छोटा नहीं है, किन्तु इसमें 'प्रियप्रवास' जैसी ताज़गी और काव्यत्व का अभाव है।

प्रियप्रवास

'प्रियप्रवास' एक सशक्त विप्रलम्भ काव्य है। कवि ने अपनी इस कृति में कृष्ण कथा के एक मार्मिक पक्ष को किंचित् मौलिकता और एक नूतन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। श्रीकृष्ण के मथुरा-गमन के उपरान्त ब्रजवासियों के विरहसन्तप्त जीवन तथा मनोभावों का हृदयस्पर्शी अंकन प्रस्तुत करने में उन्हें बहुत ही सफलता प्राप्त हुई है। संस्कृत की समस्त तथा कोमल-कान्त पदावली से अलंकृत एवं संस्कृत वर्ण वृत्तों में लिखित यह रचना खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है। रामचन्द्र शुक्ल ने इसे आकार की दृष्टि से बड़ा कहा किन्तु उन्हें इस कृति में समुचित कथानक का अभाव प्रतीत हुआ और इसी अभाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने इसके प्रबन्धत्व एवं महाकाव्यत्व को अस्वीकार कर दिया है।[1] शुक्ल जी से सरलतापूर्वक सहमत नहीं हुआ जा सकता। प्रबन्ध काव्य सम्बन्धी कुछ थोड़ी-सी रुढ़ियों को छोड़ दिया जाए तो इस काव्य में प्रबन्धत्व का दर्शन आसानी से किया जा सकता है। यह सच है कि ऊपर से देखने पर इसका कथानक प्रवास प्रसंग तक ही सीमित है, किन्तु 'हरिऔध' ने अपने कल्पना कौशल के द्वारा, इसी सीमित क्षेत्र में श्री कृष्ण के जीवन की व्यापक झाकियाँ प्रस्तुत करने के अवसर ढूँढ निकाले हैं। इस काव्य की एक और विशेषता यह है कि इसके नायक श्रीकृष्ण शुद्ध मानव रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। वे लोकसंरक्षण तथा विश्वकल्याण की भावना से परिपूर्ण मनुष्य अधिक हैं और अवतार अथवा ईश्वर नाम मात्र के।

अन्य साहित्यिक कृतित्व

हरिऔध के अन्य साहित्यिक कृतित्व में उनके ब्रजभाषा काव्य संग्रह 'रसकलश' को विस्मृत नहीं किया जा सकता है। इसमें उनकी आरम्भिक स्फुट कविताएँ संकलित हैं। ये कविताएँ श्रृंगारिक हैं और काव्य-सिद्धान्त निरूपण की दृष्टि से लिखी गयी हैं। इन्होंने गद्य और आलोचना की ओर भी कुछ-कुछ ध्यान दिया था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हिन्दी के अवैतनिक अध्यापक पद पर कार्य करते हुए इन्होंने 'कबीर वचनावली' का सम्पादन किया। 'वचनावली' की भूमिका में कबीर पर लिखे गए लेखों से इनकी आलोचना दृष्टि का पता चलता है। इन्होंने 'हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास' शीर्षक एक इतिहास ग्रन्थ भी प्रस्तुत किया, जो बहुत ही लोकप्रिय हुआ।

खड़ी बोली काव्य-रचना

अयोध्यासिंह उपाध्याय खड़ी बोली काव्य के निर्माताओं में आते हैं। इन्होंने अपने कवि कर्म का शुभारम्भ ब्रजभाषा से किया। 'रसकलश' की कविताओं से पता चलता है कि इस भाषा पर इनका अच्छा अधिकार था, किन्तु इन्होंने समय की गति शीघ्र ही पहचान ली और खड़ी बोली काव्य-रचना करने लगे। काव्य भाषा के रूप में इन्होंने खड़ी बोली का परिमार्जन और संस्कार किया। 'प्रियप्रवास' की रचना करके इन्होंने संस्कृत गर्भित कोमल-कान्तपदावली संयुक्त भाषा का अभिजात रूप प्रस्तुत किया। 'चोखे चौपदे' तथा 'चुभते चौपदे' द्वारा खड़ी बोली के मुहावरा सौन्दर्य एवं उसके लौकिक स्वरूप की झाँकी दी। छन्दों की दृष्टि से इन्होंने संस्कृत हिन्दी तथा उर्दू सभी प्रकार के छन्दों का धड़ल्ले से प्रयोग किया। ये प्रतिभासम्पन्न मानववादी कवि थे। इन्होंने 'प्रियप्रवास' में श्रीकृष्ण के जिस मानवीय स्वरूप की प्रतिष्ठा की है, उससे इनके आधुनिक दृष्टिकोण का पता चलता है। इनके श्रीकृष्ण 'रसराज' या 'नटनागर' होने की अपेक्षा लोकरक्षक नेता हैं।

सम्मान

जीवनकाल में इन्हें यथोचित् सम्मान मिला था। 1924 ई. में इन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधान पद को सुशोभित किया था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय इनकी साहित्य सेवाओं का मूल्यांकन करते हुए इन्हें हिन्दी के अवैतनिक अध्यापक का पद प्रदान किया। एक अमेरिकन 'एनसाइक्लोपीडिया' ने इनका परिचय प्रकाशित करते हुए इन्हें विश्व के साहित्य सेवियों की पंक्ति प्रदान की। खड़ी बोली काव्य के विकास में इनका योगदान निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण है। यदि 'प्रियप्रवास' खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है तो 'हरिऔध' खड़ी बोली के प्रथम महाकवि।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (हिंदी साहित्य का इतिहास, पं. सं., पृ. 608)।

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः