रहिमन मोहिं न सुहाय -रहीम
‘रहिमन’ मोहिं न सुहाय, अमी पआवै मान बनु ।
बरु वष देय बुलाय, मान-सहत मरबो भलो ॥
- अर्थ
वह अमृत भी मुझे अच्छा नहीं लगता, जो बिना मान-सम्मान के पिलाया जाय। प्रेम से बुलाकर चाहे विष भी कोई दे दे, तो अच्छा, मान के साथ मरण कहीं अधिक अच्छा है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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