वहै प्रीत नहिं रीति वह -रहीम

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वहै प्रीत नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत।
घटत-घटत ‘रहिमन’ घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत॥

अर्थ

कौन उसे प्रेम कहेगा, जो धीरे-धीरे घट जाता है? प्रेम तो वह, जो एक बार किया, तो घटना कैसा! वह रेत तो है, नहीं, जो हाथ में लेने पर छन-छनकर गिर जाय।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रीति की रीति बिलकुल ही निराली है।

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