वेदव्यास: Difference between revisions

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==वेदव्यास / Ved Vyas==
प्रत्येक [[द्वापर युग]] में [[विष्णु]] व्यास के रूप में अवतरित होकर [[वेद|वेदों]] के विभाग प्रस्तुत करते हैं।  इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया।  पहले द्वापर में स्वयं [[ब्रह्मा]] वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में [[शुक्राचार्य]] , चौथे में [[बृहस्पति]] वेदव्यास हुए।  इसी प्रकार [[सूर्य]], मृत्यु, [[इन्द्र]], धनजंय, [[कृष्ण द्वैपायन]] [[अश्वत्थामा]] आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए।  समय-समय पर वेदों का विभाजन किस प्रकार से हुआ, इसके लिए यह एक उदाहरण प्रस्तुत है। कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने ब्रह्मा की प्रेरणा से चार शिष्यों को चार वेद पढ़ाये—   
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(1) मुनि पैल को [[ॠग्वेद]],<br />
(2) [[वैशंपायन]] को [[यजुर्वेद]],<br />
(3) [[जैमिनि]] को [[सामवेद]] तथा<br />
(4) सुमंतु को [[अथर्ववेद]] पढ़ाया।
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न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविस्वसेत् ।
 
विश्वासाद् भयमुत्पन्नमपि मूलानि कृन्तति ॥
 
जो विश्वास्पात्र न हो, उस पर कभी विश्वास न करें और जो विश्वास्पात्र हो उस पर भी अधिक विश्वास न करें क्योंकि विश्वास से उत्पन्न हुआ भय मनुष्य का मूलोच्छेद कर देता है ।
 
- '''वेदव्यास''' ([[महाभारत]], [[शांति पर्व]], 138 । 144 - 45)
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व्यास का अर्थ है 'संम्पादक'।  यह उपाधि अनेक पुराने ग्रन्थकारों को प्रदान की गयी है, किन्तु विशेषकर वेदव्यास उपाधि वेदों को व्यवस्थित रूप प्रदान करने वाले उन महर्षि को दी गयी है जो चिरंजीव होने के कारण 'आश्वत' कहलाते है।  यही नाम [[महाभारत]] के संकलनकर्ता, वेदान्तदर्शन के स्थापनकर्ता तथा [[पुराण|पुराणों]] के व्यवस्थापक को भी दिया गया है।  ये सभी व्यक्ति वेदव्यास कहे गये है।  विद्वानों में इस बात पर मतभेद है कि ये सभी एक ही व्यक्ति थे अथवा विभिन्न।  भारतीय परम्परा इन सबको एक ही व्यक्ति मानती है। महाभारतकार व्यास ऋषि [[पराशर]] एवं [[सत्यवती]] के पुत्र थे, ये साँवले रंग के थे तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप में उत्पन्न हुए थे।  अतएव ये साँवले रंग के कारण 'कृष्ण' तथा जन्मस्थान के कारण 'द्वैपायन' कहलाये।  इनकी माता ने बाद में [[शान्तनु]] से विवाह किया, जिनसे उनके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़ा [[चित्रांगद]] युद्ध में मारा गया और छोटा [[विचित्रवीर्य]] संतानहीन मर गया।  कृष्ण द्वैपायन ने धार्मिक तथा वैराग्य का जीवन पसंद किया, किन्तु माता के आग्रह पर इन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों सन्तानहीन रानियों द्वारा नियोग के नियम से दो पुत्र उत्पन्न किये जो [[धृतराष्ट्र]] तथा [[पाण्डु]] कहलाये, इनमें तीसरे [[विदुर]] भी थे।  पुराणों में अठारह व्यासों का उल्लेख है जो ब्रह्मा या विष्णु के अवतार कहलाते हैं एवं [[पृथ्वी]] पर विभिन्न युगों में वेदों की व्याख्या व प्रचार करने के लिए अवतीर्ण होते हैं।
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भगवान् वेदव्यास एक अलौकिक शक्तिसम्पन्न महापुरुष थे।  इनके पिता का नाम महर्षि पराशर और माता का नाम सत्यवती था।  इनका जन्म एक द्वीप के अन्दर हुआ था और वर्ण श्याम था, अत: इनका एक नाम कृष्णीद्वैपायन भी है। वेदों का विस्तार करने के कारण ये वेदव्यास तथा बदरीवन में निवास करने कारण बादरायण भी कहे जाते हैं। इन्होंने वेदों के विस्तार के साथ महाभारत, अठारह महापुराणों ता ब्रह्मसूत्रका भी प्रणयन किया।  शास्त्रोंकी ऐसी मान्यता है कि भगवान् ने स्वयं व्यास के रूप में अवतार लेकर वेदों का विस्तार किया।  अत: व्यासजी की गणना भगवान् के चौबीस अवतारों में की जाती है।  व्यासस्मृति के नाम से इनके द्वारा प्रणीत एक स्मृतिग्रन्थ भी है। भारतीय वांड्मय एवं हिन्दू-संस्कृति व्यासजी की ऋणी है। संसार में जब तक हिन्दू-जाति एवं भारतीय संस्कृति जीवित है, तब तक व्यासजी का नाम अमर रहेगा।
 
महर्षि व्यास त्रिकालदर्शी थे।  जब [[पाण्डव]] एकचक्रा नगरी में निवास कर रहे थे, तब व्यासजी उनसे मिलने आये।  उन्होंने पाण्डवों को [[द्रौपदी]] के पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनाकर कहा कि 'यह कन्या विधाता के द्वारा तुम्हीं लोगों के लिये बनायी गयी है, अत: तू लोगों को द्रौपदी-स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिये अब [[पांचाल]]नगरी की ओर जाना चाहिये।' महाराज [[द्रुपद]] को  भी इन्होंने द्रौपदी के पूर्वजन्म की बात बताकर उन्हें द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों से विवाह करने की प्रेरणा दी थी।
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द्विविधो जायते व्याधिः शारीरो मानसस्तथा ।
 
परस्परं तयोर्जन्म निर्द्वन्द्वं नोपलम्यते ॥
 
मनुष्य को दो प्रकार की व्याधियां होती हैं – एक शारीरिक और दूसरी मानसिक । इन दोनों की उत्पत्ति एक दूसरे के आश्रित हैं, एक के बिना दूसरी का होना सम्भव नहीं है ।
 
- [[वेदव्यास]] (महाभारत, शांतिपर्व । 16 । 8)
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महाराज [[युधिष्ठिर]] के राजसूय यज्ञ के अवसर पर व्यासजी अपने शिष्यों के साथ [[इन्द्रप्रस्थ]] पधारे।  वहाँ इन्होंने युधिष्ठिर को बताया कि-'आज से तेरह वर्ष बाद क्षत्रियों का महासंहार होगा, उसमें [[दुर्योधन]] के विनाश में तुम्हीं निमित्त बनोगे।' पाण्डवों के वनवासकाल में भी जब दुर्योधन [[दु:शासन]] तथा [[शकुनि]] की सलाह से उन्हें मार डालने की योजना बना रहा था, तब व्यासजी ने अपनी दिव्य दृष्टि से उसे जान लिया।  इन्होंने तत्काल पहुँचकर [[कौरव|कौरवों]] को इस दुष्कृत्य से अवगत किया।  इन्होंने धृतराष्ट्र को समझाते हुए कहा-'तुमने जुए में पाण्डवों का सर्वस्व छीनकर और उन्हें वन भेजकर अच्छा नही किया।  दुरात्मा दुर्योधन पाण्डवों को मार डालना चाहता है।  तुम अपने लाडले बेटे को इस काम से रोको, अन्यथा इसे पाण्डवों के हाथ से मरने से कोई नहीं बचा पायगा।'
 
भगवान् व्यास जी ने [[संजय]] को दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे युद्ध-दर्शन के साथ उनमें भगवान् के विश्वरूप एवं दिव्य चतुर्भुजरूप के दर्शन की भी योग्यता आ गयी। उन्होंने [[कुरुक्षेत्र]] की युद्धभूमि में भगवान् [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] के मुखारविन्दसे नि:सृत [[गीता|श्रीमद्भगवद्गीता]] का श्रवण किया, जिसे [[अर्जुन]] के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं सुन पाया।
एक बार जब धृतराष्ट्र वनमें रहते थे, तब महाराज युधिष्ठिर अपने परिवार सहित उनसे मिलने गये।  व्यासजी भी वहाँ आये।  धृतराष्ट्रने अनसे जानना चाहा कि महाभारत के युद्ध में मारे गये वीरों की क्या गति हुई? उन्होंने व्यासजी से एक बार अपने मरे हुए सम्बन्धियों का दर्शन कराने की प्रार्थना की।  धृतराष्ट्र के प्रार्थना करने पर व्यासजी ने अपनी अलौकिक शक्ति के प्रभाव से [[गंगा नदी|गंगा]]जी में खड़े होकर युद्ध में मरे हुए वीरों का आवाहन किया युधिष्ठिर, [[कुन्ती]] तथा धृतराष्ट्र के सभी सम्बन्धियों का दर्शन कराया।  वैशम्पायन के मुख से इस अद्भुत वृत्तान्त को सुनकर राजा [[जनमेजय]] के मन में भी अपने पिता महाराज [[परीक्षित]] का दर्शन करने की लालसा पैदा हुई ।  व्यासजी वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने महाराज परीक्षित को वहाँ बुला दिया।  जनमेजय ने यज्ञान्त स्त्रान के समय अपने पिता को भी स्नान कराया।  तदनन्तर महाराज परीक्षितृ वहाँ से चले गये।  अलौकिक शक्ति से सम्पन्न तथा महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास के चरणों में शत-शत नमन है।
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==अन्य लिंक==
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