बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-3 ब्राह्मण-7: Difference between revisions

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*वह जल में, अग्नि में, अन्तरिक्ष में, वायु में, द्युलोक में, आदित्य में, समस्त दिशाओं में, चन्द्र में, तारों में, आकाश में, अन्धकार में, प्रकाश में, समस्त भूतों (जीवों) में, प्राण में, वाणी में, नेत्रों में, कानों में, मन में, त्वचा में, विज्ञान में और वीर्य के सूक्ष्म रूप में निवास करता है।  
*वह जल में, अग्नि में, अन्तरिक्ष में, वायु में, द्युलोक में, आदित्य में, समस्त दिशाओं में, चन्द्र में, तारों में, आकाश में, अन्धकार में, प्रकाश में, समस्त भूतों (जीवों) में, प्राण में, वाणी में, नेत्रों में, कानों में, मन में, त्वचा में, विज्ञान में और वीर्य के सूक्ष्म रूप में निवास करता है।  
*वह अनश्वर है, 'नेति नेति' है। केवल 'आत्मा' द्वारा ही उस अन्तर्यामी और अविनाशी 'ब्रह्म' को जाना जा सकता है। ऐसा सुनकर उद्दालक मुनि मौन हो गये।
*वह अनश्वर है, 'नेति नेति' है। केवल 'आत्मा' द्वारा ही उस अन्तर्यामी और अविनाशी 'ब्रह्म' को जाना जा सकता है। ऐसा सुनकर उद्दालक मुनि मौन हो गये।
 
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Latest revision as of 10:28, 3 August 2014

  • बृहदारण्यकोपनिषद के अध्याय तीसरा का यह सातवाँ ब्राह्मण है।
  • इस ब्राह्मण में आरुणि-पुत्र उद्दालक और महर्षि याज्ञवल्क्य के बीच शास्त्रार्थ है।
  • इसमें उद्दालक काप्य पतंजल की पत्नी पर आये गन्धर्व से 'लोक-परलोक' के विषय में पूछ गये प्रश्नों के सन्दर्भ में पूछते हैं कि क्या वे उस सूत्र को जानते हैं, जो गन्धर्व ने काप्य पतंजल मुनि को बताया था? इस पर याज्ञवल्क्य कहते हैं कि वे उस सूत्र को जानते हैं वह सूत्र 'वायु सूत्र' है; क्योंकि इहलोक, परलोक और समस्त प्राणी इस वायु के द्वारा ही गुंथे हुए हैं।
  • इसके अतिरिक्त, जो इस पृथ्वी में संव्याप्त है, पृथ्वी ही जिसका शरीर है, पर पृथ्वी उसे नहीं जानती, जो उसके भीतर बैठा हुआ सभी कुछ नियन्त्रण कर रहा है।
  • वस्तुत: यह तुम्हारा 'आत्मा' है, जो अविनाशी है और अन्तर्यामी है।
  • वह जल में, अग्नि में, अन्तरिक्ष में, वायु में, द्युलोक में, आदित्य में, समस्त दिशाओं में, चन्द्र में, तारों में, आकाश में, अन्धकार में, प्रकाश में, समस्त भूतों (जीवों) में, प्राण में, वाणी में, नेत्रों में, कानों में, मन में, त्वचा में, विज्ञान में और वीर्य के सूक्ष्म रूप में निवास करता है।
  • वह अनश्वर है, 'नेति नेति' है। केवल 'आत्मा' द्वारा ही उस अन्तर्यामी और अविनाशी 'ब्रह्म' को जाना जा सकता है। ऐसा सुनकर उद्दालक मुनि मौन हो गये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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