रूपगोस्वामी के मुख्य ग्रन्थ: Difference between revisions
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विदग्ध माधव नाटक की रचना रूप गोस्वामी ने भगवान [[शिव|शंकर]] के स्वप्नादेश से की, ऐसा उन्होंने नाटक में सूत्रधार के मुख से कहलाया है। ग्रन्थ का रचना-काल | विदग्ध माधव नाटक की रचना रूप गोस्वामी ने भगवान [[शिव|शंकर]] के स्वप्नादेश से की, ऐसा उन्होंने नाटक में सूत्रधार के मुख से कहलाया है। ग्रन्थ का रचना-काल सन् 1532-33 है, जैसा कि इसकी पुष्पिका से स्पष्ट है। ललित-माधव नाटक में रूप गोस्वामी ने स्वर्ग, मर्त, पाताल और सूर्यलोक की घटनाओं को एक सूत्र में दस अंकों में ग्रथित किया है। इसमें वृन्दावन, मथुरा, और द्वारका-लीला अपना-अपना पार्थक्य छोड़ एक के भीतर एक अन्तर्भुक्त हुई हैं। राधा के अतिरिक्त इसमें चन्द्रावली आदि गोपियों के साथ श्रीकृष्ण की प्रेम-लीला का भी वर्णन है। 'ललित' शब्द का अर्थ भक्ति- रसामृतासिन्धु में किया है- वह नायक जो विदग्ध, नवयुवा और केलि-विषय में सुनिपुण और निश्चिन्त है। नाटक में श्रीकृष्ण के इस स्वभाव का ही वर्णन है। इसका रचना काल इसकी पुष्पिका के अनुसार सन् 1537 है। | ||
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रूपगोस्वामी के मुख्य-मुख्य ग्रन्थों का परिचय
हंसदूत
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142 श्लोकों के इस प्रेम-काव्य में रूपगोस्वामी ने अपनी कवि-प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है। इसकी गोपाल चक्रवर्ती कृत्त एक प्राचीन टीका कृष्णदास बाबा ने प्रकाशित की है।
उद्धव सन्देश
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विद्वानों का मत है कि 'हंसदूत की अपेक्षा उद्धव-सन्देश की भाषा और अलंकार का अपूर्वत्व अधिक चित्तग्राही है। इसका प्रत्येक श्लोक सुमधुर रस और सुगंभीर भाव से परिपूर्ण है। आवेग की आन्तरिकता और कारुण्य प्रकाश की विस्मयकारिता की दृष्टि से इसका दूतकाव्य में उल्लेखनीय स्थान है'
स्तव माला
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रूप गोस्वामी के बहुत से फुटकर स्तवों को एकत्र कर जीव गोस्वामी ने उन्हें 'स्तवमाला' का नाम दिया है। इसमें उन्होंने क्रम से श्री चैतन्य देव, श्रीकृष्ण, श्रीराधा, राधाकृष्ण[1] के स्तव पहले दिये हैं। उसके पश्चात् विरूदावली, नाना प्रकार के छन्दों में नन्दोत्सव से लेकर कंस वध तक की लीलाएं, चक्रबन्धादिचित्रकाव्य, गीतावली, गीतावली को रसिक मोहन विद्या भूषण ने सनातन गोस्वामी की रचना कहा है। [2]
विदग्ध माधव
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विदग्ध माधव नाटक की रचना रूप गोस्वामी ने भगवान शंकर के स्वप्नादेश से की, ऐसा उन्होंने नाटक में सूत्रधार के मुख से कहलाया है। ग्रन्थ का रचना-काल सन् 1532-33 है, जैसा कि इसकी पुष्पिका से स्पष्ट है। ललित-माधव नाटक में रूप गोस्वामी ने स्वर्ग, मर्त, पाताल और सूर्यलोक की घटनाओं को एक सूत्र में दस अंकों में ग्रथित किया है। इसमें वृन्दावन, मथुरा, और द्वारका-लीला अपना-अपना पार्थक्य छोड़ एक के भीतर एक अन्तर्भुक्त हुई हैं। राधा के अतिरिक्त इसमें चन्द्रावली आदि गोपियों के साथ श्रीकृष्ण की प्रेम-लीला का भी वर्णन है। 'ललित' शब्द का अर्थ भक्ति- रसामृतासिन्धु में किया है- वह नायक जो विदग्ध, नवयुवा और केलि-विषय में सुनिपुण और निश्चिन्त है। नाटक में श्रीकृष्ण के इस स्वभाव का ही वर्णन है। इसका रचना काल इसकी पुष्पिका के अनुसार सन् 1537 है।
दान केलिकौमुदी
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यह नाटक एक ही अंक में समाप्त किया गया है, इसलिए इसे 'भाणिका' कहते हैं। इसके अन्त में रूप गोस्वामी ने लिखा है कि उन्होंने किसी सुहृद के अभिप्राय से इसकी रचना की हैं। कहा जाता हैं कि श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी ललित-माधव पढ़कर उसमें वर्णित राधा की विरह-वेदना से इतना मर्माहता हुए थे कि उनके प्राणों पर आ बीती थी।
भक्तिरसामृतसिन्धु
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भक्ति रसामृत सिन्धु और उज्ज्वल नीलमणि रूप गोस्वामी के सर्व प्रभान रस-ग्रन्थ हैं। भक्ति रसामृत सिन्धु की रचना रूप गोस्वामी ने कई वर्षों में की। इसकी रचना में बहुत बड़ा हाथ सनातन गोस्वामी का भी है। इससे सम्बन्धित तत्त्व और सिद्धान्त की रूपरेखा उनके परामर्श से ही तैयार की गयी।[3]
उज्ज्वलनीलमणि
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उज्ज्वलनीलमणि भक्तिरसामृतसिन्धु का परिशिष्ट है। उज्ज्वलनीलमणि की तीन टीकाएं हैं- श्रीजीव गोस्वामी की 'लोचनरोचनी', श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती की 'आनन्द-चन्द्रिका' और कविराज गोस्वामी के शिष्य श्रीविष्णु दास गोस्वामी की 'स्वात्मप्रबोधिनी'।
मथुरा-महिमा
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मथुरा-महिमा या मथुरा-माहात्म्य में रूप गोस्वामी ने प्राचीन शास्त्रों के आधार पर मथुरा तीर्थ के माहात्म्य का वर्णन किया है।
नाटक-चन्द्रिका
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नाटक चन्द्रिका में नाटक रचना सम्बन्धी नियमावली लिपी बद्ध की गयी है।
पद्यावली
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पद्यावली में रूपगोस्वामी ने 125 कवियों के 386 श्लोकों का संग्रह किया है।
लघुभागवतामृत
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यह रूपगोस्वामी के अनुसार सनातन के वृहद्भागवतामृत का संक्षिप्त सार है। पर वास्तव में यह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसमें उन्होंने महाभारत, पुराण, भागवत, तन्त्र, गीता, वेदान्त-सूत्र आदि के उद्धरणों को कौशलपूर्वक सन्निवेश कर अपने भक्ति-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। इसे विद्वानों ने 'भक्ति-सिद्धान्त-शास्त्र का द्वारस्वरूप' कहा है।[4]
उपदेशामृत
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इस ग्रन्थ में भजनशील व्यक्तियों के लिए रूप गोस्वामी के अमूल्य अपदेश है।
गोविन्द विरूदावली
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यह अति सुन्दर अनुप्रास-अलंकार युक्त भाषा में अपनी झंकार से ही गोविन्द को प्रसन्न कर देने वाली गोविन्द की स्तुति है। रूप गोस्वामी ने इस विरूदावली की रचना की।