मैं तुम्हें अपना -गोपालदास नीरज: Difference between revisions

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फूल है हंसकर छिपाए शूल को अपने जिगर में,
फूल है हंसकर छिपाए शूल को अपने जिगर में,
इसलिए ही मैं तुम्हारी आंख के दो बूंद जल में,
इसलिए ही मैं तुम्हारी आंख के दो बूंद जल में,
यह अधूरी जिन्दगी अपनी डुबाना चाहता हूं।
यह अधूरी ज़िन्दगी अपनी डुबाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥



Latest revision as of 10:54, 3 June 2012

मैं तुम्हें अपना -गोपालदास नीरज
कवि गोपालदास नीरज
जन्म 4 जनवरी, 1925
मुख्य रचनाएँ दर्द दिया है, प्राण गीत, आसावरी, गीत जो गाए नहीं, बादर बरस गयो, दो गीत, नदी किनारे, नीरज की पाती, लहर पुकारे, मुक्तकी, गीत-अगीत, विभावरी, संघर्ष, अंतरध्वनी, बादलों से सलाम लेता हूँ, कुछ दोहे नीरज के
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
गोपालदास नीरज की रचनाएँ

अजनबी यह देश, अनजानी यहां की हर डगर है,
बात मेरी क्या - यहां हर एक ख़ुद से बेख़बर है,
किस तरह मुझको बना ले सेज का सिंदूर कोई,
जबकि मुझको ही नहीं पहचानती मेरी नजर है,
आंख में इसे बसाकर मोहिनी मूरत तुम्हारी,
मैं सदा को ही स्वयं को भूल जाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

दीप को अपना बनाने को पतंगा जल रहा है,
बूंद बनने को समुन्दर का हिमालय गल रहा है,
प्यार पाने को धरा का मेघ है व्याकुल गगन में,
चूमने को मृत्यु निशि - दिन श्वास - पंथी चल रहा है,
है न कोई भी अकेला राह पर गतिमय इसी से,
मैं तुम्हारी आग में तन मन जलाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

देखता हूं एक मौन अभाव सा संसार भर में,
सब विसुध, पर रिक्त प्याला एक है, हर एक कर में,
भोर की मुस्कान के पीछे छिपी निशि की सिसकियां,
फूल है हंसकर छिपाए शूल को अपने जिगर में,
इसलिए ही मैं तुम्हारी आंख के दो बूंद जल में,
यह अधूरी ज़िन्दगी अपनी डुबाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

वे गए विष दे मुझे मैंने हृदय जिनको दिया था,
शत्रु हैं वे प्यार खुद से भी अधिक जिनको किया था,
हंस रहे वे याद में जिनकी हज़ारों गीत रोये,
वे अपरिचित हैं, जिन्हें हर सांस ने अपना लिया था,
इसलिए तुमको बनाकर आंसुओं की मुस्कराहट,
मैं समय की क्रूर गति पर मुस्कराना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

दूर जब तुम थे, स्वयं से दूर मैं तब जा रहा था,
पास तुम आए जमाना पास मेरे आ रहा था
तुम न थे तो कर सकी थी प्यार मिट्टी भी न मुझको,
सृष्टि का हर एक कण मुझ में कमी कुछ पा रहा था,
पर तुम्हें पाकर, न अब कुछ शेष है पाना इसी से
मैं तुम्हीं से, बस तुम्हीं से लौ लगाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें, केवल तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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