|
|
(9 intermediate revisions by 2 users not shown) |
Line 1: |
Line 1: |
− | <!-- सबसे पहले इस पन्ने को संजोएँ (सेव करें) जिससे आपको यह दिखेगा कि लेख बनकर कैसा लगेगा -->
| + | {| style="background:transparent; float:right" |
− | [[चित्र:{{PAGENAME}}|thumb|{{PAGENAME}} लिंक पर क्लिक करके चित्र अपलोड करें]] | + | |- |
− | {{पुनरीक्षण}}<!-- कृपया इस साँचे को हटाएँ नहीं (डिलीट न करें)। इसके नीचे से ही सम्पादन कार्य करें। --> | + | | |
− | '''आपको नया पन्ना बनाने के लिए यह आधार दिया गया है'''
| + | {{सूचना बक्सा कविता |
− | सुदामाचरित (संपूर्ण)
| + | |चित्र=सुदामा चरित -नरोत्तमदास.jpg |
− | | + | |चित्र का नाम=सुदामा चरित |
− | ''' | + | |कवि=[[नरोत्तमदास]] |
− | 0000 भाग-1 प्रेरक वार्तालाप 0000'''
| + | |जन्म=सन 1493 ([[संवत]]- 1550) |
− | (मंगलाचरण)
| + | |जन्म स्थान=वाड़ी, सीतापुर, [[उत्तर प्रदेश]] |
| + | |मृत्यु= |
| + | |मृत्यु स्थान= |
| + | |मुख्य रचनाएँ=[[सुदामा चरित -नरोत्तमदास|सुदामा चरित]], [[ध्रुव चरित -नरोत्तमदास|ध्रुव-चरित]] |
| + | |यू-ट्यूब लिंक= |
| + | |शीर्षक 1=भाषा |
| + | |पाठ 1=[[अवधी भाषा|अवधी]], [[हिन्दी]], [[ब्रजभाषा]] |
| + | |शीर्षक 2= |
| + | |पाठ 2= |
| + | |बाहरी कड़ियाँ= |
| + | }} |
| + | |- |
| + | | style="width:260px; float:right;"| |
| + | <div style="border:thin solid #a7d7f9; margin:5px"> |
| + | {| align="center" |
| + | ! नरोत्तमदास की रचनाएँ |
| + | |} |
| + | <div style="height: 250px; overflow:auto; overflow-x: hidden; width:99%"> |
| + | {{नरोत्तमदास की रचनाएँ-1}} |
| + | </div></div> |
| + | |} |
| + | {{Poemopen}} |
| + | <poem> |
| + | '''भाग-1 प्रेरक वार्तालाप''' |
| + | (मंगलाचरण) |
| | | |
| गनपति कृपानिधान विद्या वेद विवेक जुत। | | गनपति कृपानिधान विद्या वेद विवेक जुत। |
Line 18: |
Line 42: |
| | | |
| विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम। | | विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम। |
− | भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम॥३॥ | + | भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम॥3॥ |
| | | |
| | | |
| ताकी घरनी पतिव्रता, गहे वेद की रीति। | | ताकी घरनी पतिव्रता, गहे वेद की रीति। |
− | सलज सुशील, सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥४॥ | + | सलज सुशील, सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥4॥ |
| | | |
| | | |
| कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र। | | कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र। |
− | करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥५॥ | + | करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥5॥ |
| | | |
− | | + | (सुदामा की पत्नी) |
− | | |
− | (सुदामा की पत्नी)
| |
| महादानि जिनके हितू, हैं हरि जदुकुल- चंद। | | महादानि जिनके हितू, हैं हरि जदुकुल- चंद। |
| दे दारिद-सन्ताप ते, रहैं न क्यों निरद्वन्द।।6।। | | दे दारिद-सन्ताप ते, रहैं न क्यों निरद्वन्द।।6।। |
− |
| |
| | | |
| (सुदामा) | | (सुदामा) |
Line 39: |
Line 60: |
| सत्य भजन भगवान को, धर्म-सहित जग जोग।।7।। | | सत्य भजन भगवान को, धर्म-सहित जग जोग।।7।। |
| | | |
− | | + | (सुदामा की पत्नी) |
− | (सुदामा की पत्नी)
| + | लोचन-कमल, दु:ख मोचन तिलक भाल, |
− | लोचन-कमल, दुख मोचन तिलक भाल, | |
| स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं। | | स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं। |
| ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल, | | ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल, |
Line 48: |
Line 68: |
| तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं। | | तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं। |
| द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पियए | | द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पियए |
− | द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥८॥ | + | द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥8॥ |
− | | |
| | | |
| (सुदामा) | | (सुदामा) |
Line 55: |
Line 74: |
| जे तप कै परलोक सुधारतए संपति की तिनके नहि इच्छा॥ | | जे तप कै परलोक सुधारतए संपति की तिनके नहि इच्छा॥ |
| मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा। | | मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा। |
− | औरन को धन चाहिये बावरिए ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥९॥ | + | औरन को धन चाहिये बावरिए ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥9॥ |
| | | |
− | | + | (सुदामा की पत्नी) |
− | | |
− | (सुदामा की पत्नी)
| |
| दानी बडे तिहु लोकन में जग जीवत नाम सदा जिनकौ लै। | | दानी बडे तिहु लोकन में जग जीवत नाम सदा जिनकौ लै। |
| दीनन की सुधि लेत भली बिधि सिद्वि करौ पिय मेरो मतो लै। | | दीनन की सुधि लेत भली बिधि सिद्वि करौ पिय मेरो मतो लै। |
| दीनदयाल के द्वार न जात सो, और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै। | | दीनदयाल के द्वार न जात सो, और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै। |
| श्री जदुनाथ के जाके हितू सो, तिहूँपन क्यों कन मॉगत डोलै।।10।। | | श्री जदुनाथ के जाके हितू सो, तिहूँपन क्यों कन मॉगत डोलै।।10।। |
− |
| |
| | | |
| (सुदामा) | | (सुदामा) |
Line 71: |
Line 87: |
| बिप्रन के पन है जु यही, सुख सम्पति को कुछ काज नहीं। | | बिप्रन के पन है जु यही, सुख सम्पति को कुछ काज नहीं। |
| कै पढिबो कै तपोधन है, कन मॉगत बॉभनै लाज नहीं।।11।। | | कै पढिबो कै तपोधन है, कन मॉगत बॉभनै लाज नहीं।।11।। |
− |
| |
| | | |
| (सुदामा की पत्नी) | | (सुदामा की पत्नी) |
− |
| |
| कोदोंए सवाँ जुरितो भरि पेटए तौ चाहति ना दधि दूध मठौती। | | कोदोंए सवाँ जुरितो भरि पेटए तौ चाहति ना दधि दूध मठौती। |
| सीत बितीतत जौ सिसियातहिंए हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥ | | सीत बितीतत जौ सिसियातहिंए हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥ |
| जो जनती न हितू हरि सों तुम्हेंए काहे को द्वारिका पेलि पठौती। | | जो जनती न हितू हरि सों तुम्हेंए काहे को द्वारिका पेलि पठौती। |
| या घर ते न गयौ कबहूँ पियए टूटो तवा अरु फूटी कठौती।।12।। | | या घर ते न गयौ कबहूँ पियए टूटो तवा अरु फूटी कठौती।।12।। |
− |
| |
| | | |
| (सुदामा) | | (सुदामा) |
Line 85: |
Line 98: |
| जातहि दैहैंए लदाय लढ़ा भरिए लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥ | | जातहि दैहैंए लदाय लढ़ा भरिए लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥ |
| पाँउ कहाँ ते अटारि अटाए जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी। | | पाँउ कहाँ ते अटारि अटाए जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी। |
− | जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौए काहु पै मेटि न जात अयानी॥१३॥ | + | जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौए काहु पै मेटि न जात अयानी॥13॥ |
| | | |
− | | + | (सुदामा की पत्नी) |
− | (सुदामा की पत्नी)
| |
| पूरन पैज करी प्रह्लाद की , खम्भ सों बॉध्यो कपता जिहि बेरे। | | पूरन पैज करी प्रह्लाद की , खम्भ सों बॉध्यो कपता जिहि बेरे। |
− | द्रौपदि ध्यान धरयो जब हीं, तबहीं पट कोटि लगे चहूॅ फेरे। | + | द्रौपदि ध्यान धरयो जब हीं, तबहीं पट कोटि लगे चहूँ फेरे। |
| ग्राह ते छूटि गयो पिय, याहिं सो है निहचै जिय मेरे। | | ग्राह ते छूटि गयो पिय, याहिं सो है निहचै जिय मेरे। |
| ऐसे दरिद्र हजार हरैं वे, कृपानिधि लोवन कोर के हेरे।।14।। | | ऐसे दरिद्र हजार हरैं वे, कृपानिधि लोवन कोर के हेरे।।14।। |
− |
| |
| | | |
| (सुदामा) | | (सुदामा) |
− | चक्कवे चौंकि रहे चकि से, जहॉ भूले से भूप मितेक गिनाऊॅ। | + | चक्कवे चौंकि रहे चकि से, जहॉ भूले से भूप मितेक गिनाऊँ। |
− | देव गंधर्व और किन्नर -जच्छ से,सॉझ लौं ठाढे रहैं जिहि ठाऊॅ।।15।। | + | देव गंधर्व और किन्नर -जच्छ से,सॉझ लौं ठाढे रहैं जिहि ठाऊँ।।15।। |
| | | |
− | | + | (सुदामा की पत्नी) |
− | (सुदामा की पत्नी)
| |
| भूले से भूप अनेक खरे रहैं , ठाढै रहै तिमि चक्कवे भारी। | | भूले से भूप अनेक खरे रहैं , ठाढै रहै तिमि चक्कवे भारी। |
| छेव गन्धर्व ओ किन्नर जच्छ से, रोके जे लोकन के अधिकारी। | | छेव गन्धर्व ओ किन्नर जच्छ से, रोके जे लोकन के अधिकारी। |
| अन्तरजामी ते आपुही जानिहैं, मानो यहै सिखि आजु हमारी। | | अन्तरजामी ते आपुही जानिहैं, मानो यहै सिखि आजु हमारी। |
| द्वारिका नाथ के द्वार गए, सबतें पहिले सुधि लैहें तिहारी।।16।। | | द्वारिका नाथ के द्वार गए, सबतें पहिले सुधि लैहें तिहारी।।16।। |
− |
| |
| | | |
| (सुदामा) | | (सुदामा) |
Line 113: |
Line 122: |
| जौ ब्रजराज सौ प्रीति नहीं, केहि काज सुरेसहु की ठकुराई।।17।। | | जौ ब्रजराज सौ प्रीति नहीं, केहि काज सुरेसहु की ठकुराई।।17।। |
| | | |
− | | + | (सुदामा की पत्नी) |
− | (सुदामा की पत्नी)
| |
| फाटे पट, टूटी छानि भीख मॉगि -मॉगि खाय, | | फाटे पट, टूटी छानि भीख मॉगि -मॉगि खाय, |
| बिना जग्य बिमुख रहत देव - पित्रई। | | बिना जग्य बिमुख रहत देव - पित्रई। |
Line 123: |
Line 131: |
| जौ पै सब जन्म या दरिद्र ही सतायौ तोपै, | | जौ पै सब जन्म या दरिद्र ही सतायौ तोपै, |
| कौन काज आइहै, कृपानिधि की मित्रई।।18।। | | कौन काज आइहै, कृपानिधि की मित्रई।।18।। |
− |
| |
| | | |
| (सुदामा) | | (सुदामा) |
Line 131: |
Line 138: |
| मित्र क जौ जेंइए तौ आपहू जेवाइए। | | मित्र क जौ जेंइए तौ आपहू जेवाइए। |
| वे हैं महाराज जोरि बैठत समाज भूप, | | वे हैं महाराज जोरि बैठत समाज भूप, |
− | तहॉ यहि रूपज ाइ कहा सकुचाइए। | + | तहॉ यहि रूपजाइ कहा सकुचाइए। |
| सुख-दुख के दिन तौ काटे ही बनैगे भूलि, | | सुख-दुख के दिन तौ काटे ही बनैगे भूलि, |
| बिपति परे पैद्वार मित्र के न जाइये।।19।। | | बिपति परे पैद्वार मित्र के न जाइये।।19।। |
| | | |
− |
| + | (सुदामा की पत्नी) |
− | (सुदामा की पत्नी)
| |
| विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधुए | | विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधुए |
| लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं। | | लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं। |
Line 144: |
Line 150: |
| तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं। | | तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं। |
| नाम लेते चौगुनीए गये तें द्वार सौगुनी सोए | | नाम लेते चौगुनीए गये तें द्वार सौगुनी सोए |
− | देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानिहैं॥२०॥ | + | देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानिहैं॥20॥ |
− | | |
| | | |
| (सुदामा) | | (सुदामा) |
| प्रीति में चूक नहीं उनके हरि, मो मिलिहैं उठि कंठ लगाइ कै। | | प्रीति में चूक नहीं उनके हरि, मो मिलिहैं उठि कंठ लगाइ कै। |
| द्वार गये कुछ दैहै पै दैहैं , वे द्वारिकानाथ जू है सब लाइके। | | द्वार गये कुछ दैहै पै दैहैं , वे द्वारिकानाथ जू है सब लाइके। |
− | जे विधि बीत गये पन द्वै, अब तो पहुॅचो बिरधपान आइ कै। | + | जे विधि बीत गये पन द्वै, अब तो पहुंचो बिरधपान आइ कै। |
− | जीवन शेष अहै दिन केतिक , होहूॅ हरी सो कनावडो जाइ कै।।21।। | + | जीवन शेष अहै दिन केतिक, होहूं हरी सो कनावडो जाइ कै।।21।। |
| | | |
− | | + | (सुदामा की पत्नी) |
− | (सुदामा की पत्नी)
| |
| हूजै कनावडों बार हजार लौं, जौ हितू दीनदयालु से पाइए। | | हूजै कनावडों बार हजार लौं, जौ हितू दीनदयालु से पाइए। |
| तीनहु लोक के ठाकुर जे, तिनके दरबार न जात लजाइए। | | तीनहु लोक के ठाकुर जे, तिनके दरबार न जात लजाइए। |
| मेरी कही जिय में धरि कै पिय, भूलि न और प्रसंग चलाइए। | | मेरी कही जिय में धरि कै पिय, भूलि न और प्रसंग चलाइए। |
| और के द्वार सो काज कहा पिय, द्वारिकानाथ के द्वारे सिधारिए।।22।। | | और के द्वार सो काज कहा पिय, द्वारिकानाथ के द्वारे सिधारिए।।22।। |
− |
| |
| | | |
| (सुदामा) | | (सुदामा) |
Line 165: |
Line 168: |
| जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुखए जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥ | | जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुखए जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥ |
| द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँए भूपति जान न पावत नेरे। | | द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँए भूपति जान न पावत नेरे। |
− | पाँच सुपारि तै देखु बिचार कैए भेंट को चारि न चाउर मेरे॥२३॥ | + | पाँच सुपारि तै देखु बिचार कैए भेंट को चारि न चाउर मेरे॥23॥ |
− | | |
| | | |
| यह सुनि कै तब ब्राह्मनीए गई परोसी पास। | | यह सुनि कै तब ब्राह्मनीए गई परोसी पास। |
− | पाव सेर चाउर लियेए आई सहित हुलास॥२४॥ | + | पाव सेर चाउर लियेए आई सहित हुलास॥24॥ |
− | | |
| | | |
| सिद्धि करी गनपति सुमिरिए बाँधि दुपटिया खूँट। | | सिद्धि करी गनपति सुमिरिए बाँधि दुपटिया खूँट। |
− | माँगत खात चले तहाँए मारग वाली बूट॥२५॥ | + | माँगत खात चले तहाँए मारग वाली बूट॥25॥ |
− | | |
− | भाग-1 समाप्त
| |
− | | |
− | | |
− | | |
− | | |
− | '''0000 भाग-2 सुदामा का द्वारिका गमन 0000'''
| |
− | | |
− | (सुदामा)
| |
− | तीन दिवस चलि विप्र के, दूखि उठे जब पॉय।
| |
− | एक ठौर सोए कहॅू, घास पयार बिछाय।।26।।
| |
− | | |
− | | |
− | अन्तरयामी आपु हरि, जानि भगत की पीर।
| |
− | सोवत लै ठाढौ कियो, नदी गोमती तीर।।27।।
| |
− | | |
− | | |
− | इतै गोमती दरस तें, अति प्रसन्न भौ चित।
| |
− | बिप्र तहॉ असनान करि, कीन्हो नित्त निमित्त।।28।।
| |
− | | |
− | | |
− | भाल तिलक घसि कै दियो, गही सुमिरनी हाथ,
| |
− | देखि दिव्य द्वारावती, भयो अनाथ सनाथ।।29।।
| |
− | | |
− | | |
− | दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमईए
| |
− | एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
| |
− | पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बातए
| |
− | देवता से बैठे सब साधि.साधि मौन हैं।
| |
− | देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँयए
| |
− | कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्हौ गौन हैं।
| |
− | धीरज अधीर के हरन पर पीर केए
| |
− | बताओ बलवीर के महल यहाँ कौन हैंघ्॥३०॥
| |
− | | |
− |
| |
− | दीन जानि काहू पुरूस, कर गहि लीन्हों आय।
| |
− | दीन द्वार ठाढो कियो, दीनदयाल के जाय।।31।।
| |
− | | |
− | | |
− | द्वारपाल द्विज जानि कै, कीन्हीं दण्ड प्रनाम।
| |
− | विप्र कृपा करि भाषिये, सकुल आपनो नाम।।32।।
| |
− | | |
− | | |
− | नाम सुदामा, कृस्न हम, पढे. एकई साथ।
| |
− | कुल पाँडे वृजराज सुति, सकल जानि हैं गाथ।।33।।
| |
− | | |
− | | |
− | द्वारपाल चलि तहँ गयो, जहाँ कृस्न यदुराय।
| |
− | हाथ जोडि. ठाढो भयो, बोल्यो सीस नवाय।।34।।
| |
− | | |
− | | |
− | ;श्रीकृष्ण का द्वारपालद् सुदामा से)
| |
− | सीस पगा न झगा तन में प्रभुए जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
| |
− | धोति फटी.सी लटी दुपटी अरुए पाँय उपानह की नहिं सामा॥
| |
− | द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एकए रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।
| |
− | पूछत दीन दयाल को धामए बतावत आपनो नाम सुदामा।।35।।
| |
− | | |
− | | |
− | बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनिए
| |
− | छाँड़े राज.काज ऐसे जी की गति जानै कोघ्
| |
− | द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँयए
| |
− | भेंटत लपटाय करि ऐसे दुख सानै कोघ्
| |
− | नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरिए
| |
− | बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने कोघ्
| |
− | जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधुए
| |
− | ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने कोघ्प्प् ३६प्प्
| |
− | | |
− | | |
− | लोचन पूरि रहे जल सों, प्रभु दूरिते देखत ही दुख मेट्यो।
| |
− | सोच भयो सुुरनायक के कलपद्रुम के हित माँझ सखेट्यो।
| |
− | कम्प कुबेर हियो सरस्यो, परसे पग जात सुमेरू ससेट्यो।
| |
− | रंक ते राउ भयो तबहीं, जबहीं भरि अंक रमापति भेट्यो।।37।।
| |
− | | |
− | | |
− | भेंटि भली विधि विप्र सों, कर गहिं त्रिभुवन राय।
| |
− | अन्तःपुर माँ लै गए, जहाँ न दूजो जाय।।38।।
| |
− | | |
− | | |
− | मनि मंडित चौकी कनक, ता ऊपर बैठाय।
| |
− | पानी धर्यो परात में, पग धोवन को लाय।।39।।
| |
− | | |
− | | |
− | राजरमनि सोरह सहस, सब सेवकन सनीति।
| |
− | आठो पटरानी भई चितै चकित यह प्रीति।40।।
| |
− | | |
− | | |
− | जिनके चरनन को सलिल, हरत गत सन्ताप।
| |
− | पाँय सुदामा विप्र के धोवत , ते हरि आप।।41।।
| |
− | | |
− | | |
− | ऐसे बेहाल बेवाइन सों पगए कंटक.जाल लगे पुनि जोये।
| |
− | हाय! महादुख पायो सखा तुमए आये इतै न किते दिन खोये॥
| |
− | देखि सुदामा की दीन दसाए करुना करिके करुनानिधि रोये।
| |
− | पानी परात को हाथ छुयो नहिंए नैनन के जल सौं पग धोये॥ प्प्४२प्प्
| |
− | | |
− | | |
− | धोइ चरन पट-पीत सों, पोंछत भे जदुराय।
| |
− | सतिभामा सों यों कह्यो, करो रसोई जाय।।43।।
| |
− | | |
− | | |
− | तन्दुल तिय दीन्हें हुते, आगे धरियो जाय।
| |
− | देखि राज -सम्पति विभव, दै नहिं सकत लजाय।।44।।
| |
− | | |
| | | |
− | अन्तरजामी आपु हरि, जानि भगत की रीति।
| + | </poem> |
− | सुहृद सुदामा विप्र सों, प्रगट जनाई प्रीति।।45।।
| + | {{Poemclose}} |
| | | |
− | | + | {{सुदामा चरित}} |
− | (प्रभु श्री कृष्ण सुदामा से)
| |
− | | |
− | कछु भाभी हमको दियौए सो तुम काहे न देत।
| |
− | चाँपि पोटरी काँख मेंए रहे कहौ केहि हेत॥प्प् ४६प्प्
| |
− | | |
− | | |
− | | |
− | आगे चना गुरु.मातु दिये तए लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
| |
− | श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सोंए चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
| |
− | पोटरि काँख में चाँपि रहे तुमए खोलत नाहिं सुधा.रस भीने।
| |
− | पाछिलि बानि अजौं न तजी तुमए तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥ प्प्४७प्प्
| |
− |
| |
− | | |
− | छोरत सकुचत गॉठरी, चितवत हरि की ओर।
| |
− | जीरन पट फटि छुटि पर्यो, बिथिर गये तेहि ठोर।।48।।
| |
− | | |
− | | |
− | एक मुठी हरि भरि लई, लीन्हीं मुख में डारि।
| |
− | चबत चबाउ करन लगे, चतुरानन त्रिपुरारि।।४९।।
| |
− | | |
− | | |
− | कांपि उठी कमला मन सोचति, मोसोंकह हरि को मन औंको।
| |
− | ऋद्धि कॅपी, सबसिद्धि कॅपी, नव निद्धि कॅपी बम्हना यह धौं को।।
| |
− | सोच भयो सुर-नायक के, जब दूसरि बार लिया भरि झोंको।
| |
− | मेरू डर्यो बकसै जनि मोहिं, कुबेर चबावत चाउर चौंको।।50।।
| |
− | | |
− | | |
− | हूल हियरा मैं सब काननि परी है टेर,
| |
− | भेंटत सुदामै स्याम चाबि न अघातहीं।
| |
− | कहै नरात्तम रिद्धि सिद्धिन में सोर भयो,
| |
− | डाढी थरहरक और सोचें कमला तहीं।
| |
− | नाकलोक नागलोक ओक ओक थोकथोक,
| |
− | ठाढे थारहरै मुचा सूखे सब गात ही।
| |
− | हाल्यो पर्यो थोकन में लाल्यो पर्यो,
| |
− | चाल्यो पर्यो चौकन में, चाउर चबात ही।।51।।
| |
− | | |
− | | |
− | भौन भरो पकवान मिठाइन, लोग कहैं निधि हैं सुखमा के।
| |
− | सँाझ सबेरे पिता अभिलाखत , दाख न चाखत सिंधु छमा के।
| |
− | बँाभन एक कोऊ दुखिया सेर-पावैक चाउर लायो समाँ के।
| |
− | प््रीति की रीति कहा कहिये, तेहि बैठि चबात हैं कन्त रमा के।।52।।
| |
− | | |
− | | |
− | मूठी तीसरी भरत ही, रूकुमनि पकरी बाँह।
| |
− | ऐसी तुम्हैं कहा भई, सम्पति की अनचाह।।53।।
| |
− | | |
− | | |
− | कह्यो रूकुमिनी कान मैं , यह धौ कौन मिलाप।
| |
− | कहत सुदामहिं आपसों, होत सुदामा आप।।54।।
| |
− | | |
− | | |
− | यहि कौतुक के समय में , कही सेवकनि आय।
| |
− | भई रसोई सिद्ध प्रभु, भोजन करिये आय।।55।।
| |
− | | |
− | | |
− | थ्वप्र सुदामहिं न्हृाय कर, धोती पहरि बनाय।
| |
− | सन्ध्या करि मध्यान्ह की, चौका बैठे जाय।।56।।
| |
− | | |
− | | |
− | रूपे के रूचिर धार पायस सहित सिता,
| |
− | सोभा सब जीती जिन सरद के चन्द की।
| |
− | दूसरे परोसा भात सोधों सुरभी को घृत,
| |
− | फूले फूले फुलका प्रफुल्ल दुति मन्द की।
| |
− | पपर-मुंगौरी - बरी व्यंजन अनेक भँाति,
| |
− | देवता बिलोकि छवि देवकी के नन्द की।
| |
− | या विधि सुदामा जू को आछे कैं जँवाएँ प्रभु,
| |
− | पाछै केै पछ्यावरि परोसी आनि कन्द की।।57।।
| |
− | | |
− | | |
− | दाहिने वबद पढैं चतुरानन, सामुहें ध्यान महेस धर्यो है।
| |
− | बाएँ दोऊ कर जोरि सुसेवक, देवन साथ सुरेश खर्यो है।
| |
− | एतेई बीच अनेक लिये धन, पायन आय कुबेर पर्यो है।
| |
− | छेखि विभौ अपनो सपनो, बपुरो वह बाभन चौंकि पर्यो है।।58।।
| |
− | | |
− | | |
− | सात दिवस यहि विधि रहे, दिन आदर भाव।
| |
− | चित्त चल्यौ घर चलन कौं, ताकर सुनौं बनाव।।59।।
| |
− | | |
− | | |
− | देनो हुतौ सो दै चुकेए बिप्र न जानी गाथ।
| |
− | चलती बेर गोपाल जूए कछू न दीन्हौं हाथ॥प्प् ६०प्प्
| |
− | | |
− | | |
− | वह पुलकनि वह उठ मिलनिए वह आदर की भाँति।
| |
− | यह पठवनि गोपाल कीए कछू ना जानी जाति॥प्प्६१प्प्
| |
− | | |
− | | |
− | घर.घर कर ओड़त फिरेए तनक दही के काज।
| |
− | कहा भयौ जो अब भयौए हरि को राज.समाज॥प्प्६२प्प्
| |
− | | |
− | | |
− | हौं कब इत आवत हुतौए वाही पठ्यौ ठेलि।
| |
− | कहिहौं धनि सौं जाइकैए अब धन धरौ सकेलि॥प्प्६३प्प्
| |
− | | |
− | | |
− | बालापन के मित्र हैं, कहा देउँ मैं सराप।
| |
− | जैसी हरि हमको दियौ, तैसों पइहैं आप।।64।।
| |
− | | |
− | | |
− | नौगुन धारी छगुन सों, तिगुने मध्ये में आप।
| |
− | लायो चापल चौगुनी, आठौं गुननि गँवाय।।65।।
| |
− | | |
− | | |
− | और कहा कहिए दसा, कंचन ही के धाम।
| |
− | निपट कठिन हरि को हियों, मोको दियो न दाम।।66।।
| |
− | | |
− | | |
− | बहु भंडार रतनन भरे, कौन करे अब रोष।
| |
− | लाग आपने भाग को, काको दीजै दोस।।67।।
| |
− | | |
− | | |
− | इमि सोचत सोचत झींखत , आयो निज पुर तीर।
| |
− | दीठि परी इक बार ही, अय गयन्द की भीर।।68।।
| |
− | | |
− | | |
− | हरि दरसन से दूरि दुख भयो, गये निज देस।
| |
− | गैतम ऋषि को नाउॅ लै, कीन्होे नगर प्रवेस।।69।।
| |
− | | |
− | भाग-2 समाप्त
| |
− | | |
− | '''
| |
− | 0000 भाग-3 पुनः ग्रह आगमन 000'''
| |
− | | |
− | (सुदामा ) -
| |
− | वैसेइ राज.समाज बनेए गज.बाजि घनेए मन संभ्रम छायौ।
| |
− | वैसेइ कंचन के सब धाम हैंए द्वारिके के महिलों फिरि आयौ।
| |
− | भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
| |
− | पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥प्प्७०प्प्
| |
− | | |
− | | |
− | | |
− | देवनगर कै जच्छपुर, हौं भटक्यो कित आय।
| |
− | नाम कहा यहि नगर को, सौ न कहौ समुझाय।।
| |
− | सेा न कहौ समुझाय, नगरवासी तुम कैसे।
| |
− | पथिक जहॉ झंखहि तहॉ के लोग अनैसे।
| |
− | लोग अनैसे नाहिं, लखौ द्विजदेव नगर कै।
| |
− | कृपा करी हरि देव, दियौ है देवनगर कै।।71।।
| |
− | | |
− | | |
− | सुन्दर महल मनि-मानिक जटित अति,
| |
− | सुबरन सूरज प्रकास मानां दे रह्यो।
| |
− | देखत सुदामा को नगर के लोग धाए,
| |
− | भरै अकुलाय जोई सोई पगै छूवै रह्यो।
| |
− | बॉभनीं कै भूसन विविध बिधि देखि कह्यो,
| |
− | जहों हौं निकासो सो तमासो जग ज्वै रह्यो।
| |
− | ऐसी उसा फिरी जब द्वारिका दरस पायो,
| |
− | द्वारिका के सरिस सुदामापुर ह्वै रह्यो।।72।।
| |
− | | |
− | | |
− |
| |
− | कनक.दंड कर में लियेए द्वारपाल हैं द्वार।
| |
− | जाय दिखायौ सबनि लैंए या है महल तुम्हार॥प्प्७३प्प्
| |
− | | |
− | | |
− | कह्यो सुदामा हॅसत हौ, ह्वै करि परम प्रवीन।
| |
− | कुटी दिखावहु मोहिं वह , जहॉ बॉभनी दीन।।74।।
| |
− | | |
− | | |
− | द्वारपाल सों तिन कही, कही पठवहु यह गाथ।
| |
− | आये बिप्र महाबली, देखहु होहु सनाथ।।75।।
| |
− | | |
− | | |
− | सुनत चली आनत्द युत, सब सखियन लै संग।
| |
− | किंकिनी नूपुर दुन्दुभि, मनहु काम चतुरंग।।76।।
| |
− | | |
− | | |
− | (सुदामा की पत्नी) -
| |
− | कही बॉभनी आइ कै, यहै कन्त निज गेह।
| |
− | श्री जदुपति तिहुॅ लोक में, कीन्ह प्रगट निजु नेह।।77।।
| |
− | | |
− | | |
− | (सुदामा ) -
| |
− | हमैं कन्त तुम जति कहो, बोलौ बचन सॅभारि।
| |
− | इन्हैं कुटी मेरी हुती, दीन बापुरी नारि।।78।।
| |
− | | |
− | | |
− | (सुदामा की पत्नी) -
| |
− | मैं तो नारि तिहारियै, सुधि सॅभारिये कन्त।
| |
− | प्रभुता सुन्दरता सबै, दई रूक्मिणी कन्त।।79।।
| |
− | | |
− | | |
− | (सुदामा ) -
| |
− | टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौरए
| |
− | तामैं परो दुख काटौं कहाँ हेम.धाम री।
| |
− | जेवर.जराऊ तुम साजे प्रति अंग.अंगए
| |
− | सखी सोहै संग वह छूछी हुती छाम री।
| |
− | तुम तो पटंबर री ओढ़े किनारीदारए
| |
− | सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी।
| |
− | मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पैए
| |
− | विपदा सताई वह पाई कहाँ पामरीघ्प्प्८०प्प्
| |
− | | |
− | | |
− | ठाडी पंडिताइन कहत मंजु भावन सों,
| |
− | प्यारे परौं पाइन तिहारोई यह घरू है।
| |
− | आये चलि हरौं श्रम कीन्हों तुम भूरि दुःख,
| |
− | दारिद गमायो यों हॅसत गह्यो करू है।
| |
− | रिद्धि सिद्धि दासी करि दीन्हीं अविनासी कृस्न,
| |
− | पूरन प्रकासी , कामधेनु कोटि बरू है।
| |
− | चलो पति भूलो मति दीन्हों सुख जदुपति,
| |
− | सम्पति सो लीजिये समेत सुरूतरू है।।81।।
| |
− | | |
− | | |
− | | |
− | समझायो पुनि कन्त को, मुदित गई लै गेह।
| |
− | अन्हवायो तुरतहिं उबटि, सुचि सुगन्ध मलि देह।।82।।
| |
− | | |
− | | |
− | पूज्यो अधिक सनेह सों, सिंहासन बैठाय।
| |
− | सुचि सुगन्ध अम्बर रचे, बर भूसन पहिराय।।83।।
| |
− | | |
− | | |
− | सीतल जल अॅचवाइ कै, पानदान धरि पान।
| |
− | धर्यो आय आगे तुरत, छवि रवि प्रभा समान।।84।।
| |
− | | |
− | | |
− | झरहिं चौंर चहुॅ ओर तें, रम्भादिक सब नारि।
| |
− | प्तिव्रता अति प्रेम सों, ठाढी करै बयारि।।85।।
| |
− | | |
− | स्वेत छत्र की छॉह, राज मैं शक्र समान।
| |
− | बहन गज रथ तुरंग वर, अरू अनेक सुभ यान।।86।।
| |
− | भाग-3 समाप्त
| |
− | | |
− | | |
− | '''0000 भाग-4 कृष्ण महिमा गान 0000'''
| |
− | | |
− | (सुदामा ) -
| |
− | कामधेनु सुरतरू सहित, दीन्हीं सब बलवीर।
| |
− | जानि पीर गुरू बन्धु जन, हरि हरि लीन्हीं पीर।।87।।
| |
− | | |
− | | |
− | विविध भॉति सेवा करी,.सुधा पियायो बाम।
| |
− | अति विनीत मृदु वचन कहि, सब पुरो मन काम।।88।।
| |
− | | |
− | | |
− | लै आयसु, प्रिय स्नान करि, सुचि सुगन्ध सब लाइ।
| |
− | पूजी गौरि सोहाग हित, प्रीति सहित सुख पाइ।।89।।
| |
− | | |
− | | |
− | षट्रस विविध प्रकार के, भोजन रचे बनाय।
| |
− | कंचन थार मंगाइ कै, रचि रचि धरे बनाय।।90।।
| |
− | | |
− | | |
− | कंचन चौकी डारि कै, दासी परम सुजानि।
| |
− | रतन जटित भाजन कनक , भरि गंगोदक आनि।।91।।
| |
− | | |
− | | |
− | घट कंचन को रतनयुत, सुचि सुगन्धि जल पूरि।
| |
− | रच्छाधान समेत कै, जल प्रकास भरपूरि।।92।।
| |
− | | |
− | | |
− | रतन जटित पीढा कनक, आन्यो जेंवन काम।
| |
− | मरकत-मनि चौकी धरी, कछुक दूरि छबि धाम।।93।।
| |
− | | |
− | | |
− | चौकी लई मॅगाय कै, पग धोवन के काज।
| |
− | मनि-पादुका पवित्र अति, धरी विविध विधि साज।।94।।
| |
− | | |
− | | |
− | चलि भोजन अब कीजिये, कह्यो दास मृदु भाखि।
| |
− | कृस्न कृस्न सानन्द कहि, धन्य भरी हरि साखि।।95।।
| |
− | | |
− | | |
− | बसन उतारे जाइ कै, धोवत चरन-सरोज।
| |
− | चौकी पै छबि देत यौं, जनु तनु धरे मनोज।।96।।
| |
− | | |
− | | |
− | पहिरि पादुका बिप्र बर, पीढा बैठे जाय।
| |
− | रति ते अति छवि- आगरी, पति सो हँसि मुसकाय।।97।।
| |
− | | |
− | | |
− | बिबिध भाँति भोजन धरे, व्यंजन चारि प्रकार।
| |
− | जोरी पछिओरी सकल, प्रथम कहे नहिं पार।।98।।
| |
− | | |
− | | |
− | हरिहिं समर्पो कन्त अब, कहो मन्द हँसि वाम।
| |
− | करि घंटा को नाद त्यों, हरि सपर्पि लै नाम।।99।।
| |
− | | |
− | | |
− | अगिनि जेंवाय विधान सों, वैस्यदेव करि नेम।
| |
− | बली काढि जेंवन लगे, करत पवन तिय प्रेम।।100।।
| |
− | | |
− | | |
− | बार बार पूछति प्रिया, लीजै जो रूचि होइ।
| |
− | कृस्न- कृपा पूरन सबै, अबै परोसौं सोइ।।101।।
| |
− | | |
− | | |
− | जेंइ चुके, अँचवन लगे, करन हेतु विश्राम।
| |
− | रतन जटित पलका-कनक, बुनो सो रेशम दाम।।102।।
| |
− | | |
− | | |
− | ललित बिछौना, बिरचि कै, पाँयत कसि कै डोरि।
| |
− | राखे बसन सुसेवकनि, रूचिर अतर सों बोरि।।103।।
| |
− | | |
− | | |
− | पानदान नेरे धर्यो भरि, बीरा छवि-धाम।
| |
− | चरन धोय पौढन लगे, करन हेतु विश्राम।।104।।
| |
− | | |
− | | |
− | कोउ चँवर कोउ बीजना, कोउ सेवत पद चारू।
| |
− | अति विचित्र भूषन सजे, गज मोतिन के हारू।।105।।
| |
− | | |
− | | |
− | करि सिंगार पिय पै गई, पान खाति मुसुकाति।
| |
− | कहौ कथा सब आदि तें, किमि दीन्हों सौगाति।।106।।
| |
− | | |
− | | |
− | कही कथा सब आदि ते, राह चले की पीर।
| |
− | सेावत जिमि ठाढो कियो, नदी गोमती तीर।।107।।
| |
− | | |
− | | |
− | गये द्वार जिहि भाँति सों, सो सब करी बखानि।
| |
− | कहि न जाय मुख लाल सों, कृस्न मिले जिमि आनि।।108।।
| |
− | | |
− | | |
− | करि गहि भीतर लै गए, जहाँ सकल रनिवास।
| |
− | पग धोवन को आपुही, बैठे रमानिवास।।109।।
| |
− | | |
− | | |
− | देखि चरन मेरे चल्यो, प्रभु नयनन तें बारि।
| |
− | ताही सों धोये चरन, देखि चकित नर-नारि।।110।।
| |
− | | |
− | | |
− | बहुरि कही श्री कृस्न जिमि, तन्दुल लीन्हें आप।
| |
− | भेंटे हृदय लगाय कै, मेटे भ्रम सन्ताप।।111।।
| |
− | | |
− | | |
− | बहुरि कही जेवनार सब, जिमि कीन्हीं बहु भाँति।
| |
− | बरनि कहाँ लगि को कहै, सब व्यंजन की पाँति।।112।।
| |
− | | |
− | | |
− | जादिन अधिक सनेह सों, सपन दिखायो मोहिं।
| |
− | सेा देख्यो परतच्छ ही,सपन न निसफल होहिं।।113।।
| |
− | | |
− | | |
− | बरनि कथा वहि विधि सबै, कह्ययो आपनो मोह।
| |
− | वृथा कृपानिधि भगत-हितु-चिदानन्द सन्दोह।।114।।
| |
− | | |
− | | |
− | साजे सब साज-,बाजि गज राजत हैं,
| |
− | विविध रूचिर रथ पालकी बहल है।
| |
− | रतनजटित सुभ सिंहासन बैठिबे को,
| |
− | चौक कामधेनु कल्पतरूहू लहलहैं।
| |
− | देखि देखि भूषण वसन-दासि दासन के,
| |
− | सुख पाकसासन के लागत सहल है।
| |
− | सम्पति सुदामा जू को कहाँ लौं दई है प्रभु,
| |
− | कहाँ लौं गिनाऊँ जहाँ कंचन महल है।।115।।
| |
− | | |
− | | |
− | अगनित गज वाजि रथ पालकी समाज,
| |
− | ब्रजराज महाराज राजन-समाज के।
| |
− | बानिक विविध बने मंदिर कनक सोहैं,
| |
− | मानिक जरे से मन मोहें देवतान के।
| |
− | हिरा लाल ललित झरोखन में झलकत,
| |
− | किमि किमि झूमर झुलत मुकतान के।
| |
− | जानी नहिं विपति सुदामा जू की कहाँ गई,
| |
− | देखिये विधान जदुराय के सुदान के।।116।।
| |
− | | |
− | | |
− | कहूँ सपनेहूँ सुबरन के महल होते,
| |
− | पौरि मनि मण्डित कलस कब धरते।
| |
− | रतन जटित सिंहासन पर बैठिबे को,
| |
− | कब ये खबास खरे मौपे चौंर ढरते।
| |
− | देखि राजसामा निज बामा सों सुदामा कह्यो,
| |
− | कब ये भण्डार मेरे रतनन भरते।
| |
− | जो पै पतिवरता न देती उपदेश तू तो,
| |
− | एती कृपा द्वारिकेस मो पैं कब करते।।117।।
| |
− | | |
− | | |
− | पहरि उठे अम्बर रूचिर सिंहासन पर आय।
| |
− | बैठे प्रभुता निरखि कै, सुर-पति रह्यो लजाई।।118।।
| |
− | | |
− | | |
− | कै वह टूटि.सि छानि हती कहाँए कंचन के सब धाम सुहावत।
| |
− | कै पग में पनही न हती कहँए लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
| |
− | भूमि कठोर पै रात कटै कहाँए कोमल सेज पै नींद न आवत।
| |
− | कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभुए के परताप तै दाख न भावत॥ प्प्११९प्प्।।119।।
| |
− | | |
− | | |
− | धन्य धन्य जदुवंश - मनि, दीनन पै अनुकूल।
| |
− | धन्य सुदामा सहित तिय, कहि बरसहिं सुर फूल।।120।।
| |
− | | |
− | समाप्त
| |
− | | |
− | ==शीर्षक उदाहरण 1==
| |
− | | |
− | ===शीर्षक उदाहरण 2===
| |
− | | |
− | ====शीर्षक उदाहरण 3====
| |
− | | |
− | =====शीर्षक उदाहरण 4=====
| |
− | | |
− | <!-- कृपया इस संदेश से ऊपर की ओर ही सम्पादन कार्य करें। ऊपर आप अपनी इच्छानुसार शीर्षक और सामग्री डाल सकते हैं -->
| |
− | | |
− | <!-- यदि आप सम्पादन में नये हैं तो कृपया इस संदेश से नीचे सम्पादन कार्य न करें -->
| |
− | | |
− | | |
− | {{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | |
| ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
| <references/> | | <references/> |
− |
| |
| ==बाहरी कड़ियाँ== | | ==बाहरी कड़ियाँ== |
− |
| |
| ==संबंधित लेख== | | ==संबंधित लेख== |
− | | + | [[Category:नरोत्तमदास]][[Category:पद्य साहित्य]] |
− | [[Category:नया पन्ना सितम्बर-2012]] | + | [[Category:भक्ति साहित्य]][[Category:भक्तिकालीन साहित्य]][[Category:भक्ति काल]] [[Category:साहित्य कोश]] |
| | | |
| __INDEX__ | | __INDEX__ |
| + | __NOTOC__ |