जूपितर: Difference between revisions
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*[[रोम]] के दक्षिण में अल्बान की पहाड़ी पर जूपितर की पूजा का सर्वाधिक प्राचीन केंद्र है। यह तीस लातीनी नगरों के उस संघ का केंद्रीय पूजा स्थल था, जिसका रोम भी सामान्य सदस्य था। स्वयं रोम में कैपीलोलिन की पहाड़ी पर जूपितर के प्राचीनतम मंदिर के [[अवशेष]] मिले हैं। | *[[रोम]] के दक्षिण में अल्बान की पहाड़ी पर जूपितर की पूजा का सर्वाधिक प्राचीन केंद्र है। यह तीस लातीनी नगरों के उस संघ का केंद्रीय पूजा स्थल था, जिसका रोम भी सामान्य सदस्य था। स्वयं रोम में कैपीलोलिन की पहाड़ी पर जूपितर के प्राचीनतम मंदिर के [[अवशेष]] मिले हैं। | ||
*वास्तव में जूपितर न केवल जातियों के संरक्षक के रूप में पूजा जाता है, अपितु उसे एक मात्र | *वास्तव में जूपितर न केवल जातियों के संरक्षक के रूप में पूजा जाता है, अपितु उसे एक मात्र महान् नैतिक शक्ति रूप में भी मान्यता प्राप्त है, जिसका संबंध शपथ, संगठनों और संधियों से है। | ||
*रोम के अनेक प्राचीन पवित्र [[विवाह संस्कार]] जूपितर के पुजारियों की ही उपस्थिति में संपन्न हुआ करते थे। लेकिन समय के अनुसार जूपितर संबंधी धारणाओं और मान्यताओं में परिवर्तन तथा विकास होता रहा। | *रोम के अनेक प्राचीन पवित्र [[विवाह संस्कार]] जूपितर के पुजारियों की ही उपस्थिति में संपन्न हुआ करते थे। लेकिन समय के अनुसार जूपितर संबंधी धारणाओं और मान्यताओं में परिवर्तन तथा विकास होता रहा। | ||
*[[रोमन साम्राज्य|रोमन]] राजतंत्र के अंतिम दिनों में जूपितर के नए मंदिरों का निर्माण हुआ और एक नवीन संस्कार के द्वारा उसे सर्वशक्तिमान 'जूपितर आप्तिमस मैक्सिमस' की संज्ञा दी गई। यह संस्कार समारोह प्रतिवर्ष [[13 सितंबर]] को मनाया जाता था, जिसमें कांसुल, सीनेट-सदस्य, न्यायाधीश और [[पुरोहित]] सम्मिलित होते और अतीत में की गई शपथों को पूरा होने की प्रार्थना करते थे। उस अवसर पर इस | *[[रोमन साम्राज्य|रोमन]] राजतंत्र के अंतिम दिनों में जूपितर के नए मंदिरों का निर्माण हुआ और एक नवीन संस्कार के द्वारा उसे सर्वशक्तिमान 'जूपितर आप्तिमस मैक्सिमस' की संज्ञा दी गई। यह संस्कार समारोह प्रतिवर्ष [[13 सितंबर]] को मनाया जाता था, जिसमें कांसुल, सीनेट-सदस्य, न्यायाधीश और [[पुरोहित]] सम्मिलित होते और अतीत में की गई शपथों को पूरा होने की प्रार्थना करते थे। उस अवसर पर इस महान् [[देवता]] को पशुबलि दी जाती थी और अतीत में साम्राज्य की रक्षा के लिये उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाती थी तथा भविष्य के लिये नई शपथ ग्रहण की जाती थी। बाद के समय में यह दिन [[खेल]] कूद के समारोह का दिन बन गया, जो शत्रुओं पर विजय की खुशी में मनाया जाता था। शत्रुओं पर विजय के पश्चात् खुशी के जलूस निकाले जाते और जूपितर के मंदिर पर जाकर उसके प्रति कृतज्ञता स्वरूप उसकी [[पूजा]] की जाती थी।<ref>{{cite web |url= http://bharatkhoj.org/india/%E0%A4%9C%E0%A5%82%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%B0|title=जूपितर |accessmonthday=30 मई|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | ||
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Latest revision as of 12:21, 25 October 2017
जूपितर को रोमन धर्मशास्त्र में "आकाश की आत्मा" की संज्ञा दी गई है। वर्षा और विद्युत के देवता के रूप में इसकी पूजा की जाती है। वह रोमन जातियों का रक्षक देवता माना गया है। संपूर्ण इटली में पहाड़ी की चोटियों पर जूपितर की पूजा होती है।
- रोम के दक्षिण में अल्बान की पहाड़ी पर जूपितर की पूजा का सर्वाधिक प्राचीन केंद्र है। यह तीस लातीनी नगरों के उस संघ का केंद्रीय पूजा स्थल था, जिसका रोम भी सामान्य सदस्य था। स्वयं रोम में कैपीलोलिन की पहाड़ी पर जूपितर के प्राचीनतम मंदिर के अवशेष मिले हैं।
- वास्तव में जूपितर न केवल जातियों के संरक्षक के रूप में पूजा जाता है, अपितु उसे एक मात्र महान् नैतिक शक्ति रूप में भी मान्यता प्राप्त है, जिसका संबंध शपथ, संगठनों और संधियों से है।
- रोम के अनेक प्राचीन पवित्र विवाह संस्कार जूपितर के पुजारियों की ही उपस्थिति में संपन्न हुआ करते थे। लेकिन समय के अनुसार जूपितर संबंधी धारणाओं और मान्यताओं में परिवर्तन तथा विकास होता रहा।
- रोमन राजतंत्र के अंतिम दिनों में जूपितर के नए मंदिरों का निर्माण हुआ और एक नवीन संस्कार के द्वारा उसे सर्वशक्तिमान 'जूपितर आप्तिमस मैक्सिमस' की संज्ञा दी गई। यह संस्कार समारोह प्रतिवर्ष 13 सितंबर को मनाया जाता था, जिसमें कांसुल, सीनेट-सदस्य, न्यायाधीश और पुरोहित सम्मिलित होते और अतीत में की गई शपथों को पूरा होने की प्रार्थना करते थे। उस अवसर पर इस महान् देवता को पशुबलि दी जाती थी और अतीत में साम्राज्य की रक्षा के लिये उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाती थी तथा भविष्य के लिये नई शपथ ग्रहण की जाती थी। बाद के समय में यह दिन खेल कूद के समारोह का दिन बन गया, जो शत्रुओं पर विजय की खुशी में मनाया जाता था। शत्रुओं पर विजय के पश्चात् खुशी के जलूस निकाले जाते और जूपितर के मंदिर पर जाकर उसके प्रति कृतज्ञता स्वरूप उसकी पूजा की जाती थी।[1]
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