प्राणतत्त्व: Difference between revisions

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*<span>पुस्तक हिन्दू धर्म कोश से पेज संख्या 428 | '''डॉ. राजबली पाण्डेय''' |उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) |राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ </span>
*<span>पुस्तक हिन्दू धर्म कोश से पेज संख्या 428 | '''डॉ. राजबली पाण्डेय''' |उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) |राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ </span>
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Revision as of 12:16, 21 March 2014

चित्र:Disamb2.jpg प्राण एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- प्राण (बहुविकल्पी)

जिस आन्तरिक सूक्ष्म शक्ति द्वारा दृश्य जगत में जीवात्मा का देह से सम्बन्ध होता है, उसे प्राण कहते हैं।

पाँच रूप

यह प्राणशक्ति ही स्थूल प्राण, अपान, व्यान, समान एवं उदान नामक पंच वायु एवं उनके धनंजय, कृकल, कूर्म आदि रूप न होकर इन सबकी संचालिका है। एक ही प्राणशक्ति पाँच रूपों में विभक्त होकर प्राण, अपान, व्यान इत्यादि नामों से हृदय, कण्ठादि स्थानों में स्थित पंच स्थूल वायुओं का संचालन करती हैं।

भेद

इस दृश्य संसार के समस्त पदार्थों के दो भेद किये जा सकते हैं, जिनमें प्रथम बाह्यंश एवं द्वितीय आन्तरांश है। इनमें आन्तरांश सूक्ष्मशक्ति प्राण है एवं बाह्यंश जड़ है। यह अंश बृहदारण्यकोपनिषद में भी निर्दिष्ट है। इसी विषय को बृहदारण्यकभाष्य और भी स्पष्ट कर देता है। कार्यात्मक जड़ पदार्थ नाम और रूप के द्वारा शरीरावस्था को प्राप्त करता है, किन्तु कारणभूत सूक्ष्म प्राण उसका धारक है। अत: यह कहा जा सकता है कि यह सूक्ष्म प्राणशक्ति ही एकत्रीभूत स्थूल शक्ति (शरीर) के अन्दर अवस्थित रहकर उसकी संचालिका है।

सूक्ष्म प्राणशक्ति

इस सूक्ष्म शक्ति प्राण के द्वारा ही पंचीकरण से पृथ्वी, जल, अग्नि आदि स्थूल पंच महाभूतों की उत्पत्ति होती है। इसी सूक्ष्म प्राणशक्ति की महिमा से अणु-परमाणुओं के अन्दर आकर्षण-विकर्षण के द्वारा ब्रह्माण्ड की स्थिति-दशा में सूर्य और चन्द्रमा के लेकर समस्त ग्रह-उपग्रह आदि अपने-अपने स्थानों पर स्थित रहते हैं। समस्त जड़ पदार्थ भी इसी के द्वारा कठिन, तरल अथवा वायवीय रूप में अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार अवस्थित रह सकते हैं। इस प्रकार इस समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि और स्थिति के मूल में सूक्ष्म प्राणशक्ति का ही साम्राज्य है। प्राणशक्ति की उत्पत्ति परमात्मा की इच्छाशक्ति से ही मानी जाती है, जो समष्टि और व्यष्टि रूपों से व्यवहृत होती है। क्योंकि यह समस्त जगत परमेश्वर के संकल्प मात्र से प्रसूत है, अत: तदन्तर्वर्तिनी प्राणशक्ति भी परमेश्वर की इच्छा से उदभूत है।

शक्ति

सूर्य के साथ समष्टिभूत प्राण का सम्बन्ध होने पर ऋतुपरिवर्तन, सस्यसमृद्धि का विस्तार एवं संसार की रक्षा तथा प्रलयादि सभी कार्य समष्टि प्राण की शक्ति से ही सम्पन्न होते रहते हैं। प्राण की इस धनधारिणी शक्ति को छान्दोग्य उपनिषद अधिक स्पष्ट कर देती है। जिस प्रकार रथचक्र की नाभि के ऊपर चक्रदण्ड (अरा) स्थित रहते हैं, उसी प्रकार प्राण के ऊपर समस्त विश्व आधारित रहता है। प्राण का आदान-प्रदान प्राण द्वारा ही होता है। प्राण पितावत् जगत का जनक, मातृवत् संसार का पोषक, भ्रातृवत् समानता का विधायक, भगिनीवत् स्नेह संचारक एवं आचार्यवत् नियमनकर्ता है।

संचालन

जिस प्रकार एक सम्राट अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को विभिन्न ग्राम, नगर आदि स्थानों पर स्थापित कर उनके द्वारा उन स्थानों का शासन कार्य कराता है, उसी प्रकार से प्राण भी अपने अंश से उत्पन्न व्यष्टिभूत प्राणों को जीवशरीर के विभिन्न स्थानों पर प्रतिष्ठित कर शरीर के विविध कार्यों का संचालन कराता है। इस प्रकार यह सब प्राणशक्ति की क्रियाकारिता का ही परिणाम है, जिसके ऊपर चराचर जगत का विकास आधारित है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • पुस्तक हिन्दू धर्म कोश से पेज संख्या 428 | डॉ. राजबली पाण्डेय |उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) |राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ