कुल्लूकभट्ट: Difference between revisions

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Revision as of 12:03, 17 May 2011

कुल्लूकभट्ट मनुस्मृति की प्रसिद्ध टीका के रचयिता हैं। इनका काल बारहवीं शताब्दी है। मेधातिथि और गोविन्दराज के महाभाष्यों का इन्होंने प्रचुर उपयोग किया है। इनके अन्य ग्रन्थ हैं-स्मृतिविवेक, अशौचसागर, श्राद्धसागर और विवादसागर। पूर्वमीमांसा के ये प्रकाण्ड पंडित थे। अपनी टीका 'मन्वर्थमुक्तावली' में इन्होंने लिखा है- "वैदिकी तांत्रिकी चैव द्विविधा श्रुति: कीर्तिता।" (वैदिकी एवं तान्त्रिकी ये दो श्रुतियाँ मान्य हैं।) इसलिए कुल्लूकभट्ट के मत से तंत्र को भी श्रुति कहा जा सकता है। कुल्लूक ने कहा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियाँ, जो क्रियाहीनता के कारण जातिच्युत हुई हैं, चाहे वे म्लेच्छभाषी हों चाहे आर्य भाषी, सभी दस्यु कहलाती हैं। इस प्रकार के कतिपय मौलिक विचार कुल्लूकभट्ट के पाये जाते हैं।

परिचय

मन्वर्थमुक्तावली की भूमिका में कुल्लूकभट्ट ने अपना संक्षिप्त परिचय इस प्रकार दिया है-

गौडे नन्दनवासिनाम्नि सुजनैर्वन्द्ये वरेन्द्रयाम् कुले
श्रीमभ्दट्टदिवाकरस्य तनय: कुल्लूकभट्टोऽभवत्।
काश्यामुत्तरवाहिजह् नुतनयातीरे समं पंडितैस्
तेनेयं क्रियते हिताय विदुषां मन्वर्थमुक्तावली।।

(गौडदेश के नन्दन ग्रामवासी, सुजनों से वन्दनीय वारेन्द्र कुल में श्रीमान दिवाकर भट्ट के पुत्र कुल्लुक हुए। काशी में उत्तरवाहिनी गंगा के किनारे पंडितों के साहचर्य में उनके (कुल्लूकभट्ट के) द्वारा विद्वानों के हित के लिए मन्वर्थमुक्तावली (नामक टीका) रची जा रही है।)

मेधा तिथि तथा गोविन्दराज के अतिरिक्त अन्य शास्त्रकारों का भी उल्लेख कुल्लूकभट्ट ने किया है, जैसे गर्ग[1], धरणीधर, भास्कर [2], भोजदेव [3], वामन [4], विश्वरूप [5]। निबन्धों में कुल्लूक कृत्यकल्पतरु का प्राय: उल्लेख करते हैं। आश्चर्य इस बात का नहीं है कि मन्वर्थमुक्तावली में कुल्लूक ने बंगाल के प्रसिद्ध निबन्धकार जीमूतवाहन के दायभाग की कहीं चर्चा नहीं की है। सम्भवत: वाराणसी में रहने के कारण वे जीमूतवाहन के ग्रन्थ से परिचित नहीं थे। अथवा जीमूतवाहन अभी प्रसिद्ध नहीं हो पाए थे।

टीका की प्रशंसा

कुल्लूकभट्ट ने अन्य भाष्यकारों की आलोचना करते हुए अपनी टीका की प्रशंसा की है-

सारासारवच: प्रपच्ञनविधौ मेधातिथेश्चातुरी
स्तोकं वस्तु निगूढमल्पवचनाद् गोविन्दराजो जगौ।
ग्रन्थेऽस्मिन्धरणीरस्य बहुश: स्वातन्त्र्यमेतावता
स्पष्टं मानवधर्मतत्त्वमखिलं वक्तं कृतोऽयं श्रम:।।

(मेधातिथि की चातुरी सारगर्भित तथा सारहीन वचनों (पाठों) के विवेचन की शैली में दिखाई पड़ती है। गोविन्दराज ने परम्परा से स्वतंत्र होकर शास्त्रों का अर्थ किया है। परन्तु मैंने 'मन्वर्थमुक्तावली' मे, मानव धर्म (शास्त्र) के सम्पूर्ण तत्त्व को स्पष्ट रूप से कहने का श्रम किया है।)

कुल्लूकभट्ट की प्रशंसा

सर विलियम जोन्स ने कुल्लूकभट्ट की प्रशंसा में लिखा है-'इन्होंने कष्टसाध्य अध्ययन कर बहुत सी पाण्डुलिपियों की तुलना से ऐसा ग्रन्थ प्रस्तुत किया, जिसके विषय में सचमुच कहा जा सकता है कि यह लघुतम किन्तु अधिकतम व्यञ्जक, न्यूनतम दिखाऊ किन्तु पाण्डित्यपूर्ण, गम्भीरतम किन्तु अत्यन्त ग्राह्य है। प्राचीन अथवा नवीन किसी लेखक की ऐसी सुन्दर टीका दुर्लभ है।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

पाण्डेय, डॉ. राजबली हिन्दू धर्मकोश, द्वितीय संस्करण - 1988 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 193।

  1. (मनु. 2.6)
  2. (मनु, 1.8, 15)
  3. (मनु, 8.184)
  4. (मनु, 12.106)
  5. (मनु, 2.189)