क़यामत: Difference between revisions
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#'उस दिन न मित्र किसी मित्र के सहायक होंगे और न वह सहायक पाये (होंगे)।'<ref>44:2:12</ref> | #'उस दिन न मित्र किसी मित्र के सहायक होंगे और न वह सहायक पाये (होंगे)।'<ref>44:2:12</ref> |
Revision as of 11:12, 6 December 2011
ईसाई और यहूदी धर्मों की भाँति इस्लाम जीवों के फिर–फिर जन्म लेने को नहीं मानता। संसार में मनुष्य, पशु आदि सबके जीव प्रथम ही प्रथम शरीर में प्रविष्ट हुए। मरने के बाद उनका फिर से जन्म न होगा। हाँ, प्रलय (क़यामत) अथवा पुनरुत्थान के दिन प्रत्येक जीव अपने पुराने शरीर के साथ जी उठेगा। उसी दिन उसके शुभ–अशुभ कर्मों का पारितोषिक या दण्ड उसे सुनाया जाएगा। संसारी प्राणी का कोई संचित और प्रारब्ध कर्म नहीं होता। जगत के भोगों की असमानता जीव के कर्म के अनुसार नहीं है, यह ईश्वर की इच्छा है। अपने–अपने कर्मों का फल मनुष्य ही पायेंगे, पशु–पक्षी नहीं। मनुष्य की आवश्यकता की पूर्ति के लिए ईश्वर ने उन्हें बनाया है। उस निर्णय के दिन और उसके निर्णय के विषय में क़ुरान में निम्नलिखित भाव हैं-
- 'जिसने पुण्य कर्म किया, वह अपने लिए, जिसने पाप कर्म किया, वह अपने लिए। तेरा ईश्वर किसी सेवक के साथ अन्याय नहीं करता।'[1]
- 'उस दिन न मित्र किसी मित्र के सहायक होंगे और न वह सहायक पाये (होंगे)।'[2]
- 'प्रभु कणिका मात्र भी किसी पर अन्याय नहीं करता। यदि पुण्य है तो उसको दूना कर देता है (और) अपने पास बड़ा फल देता है।'[3]
- 'उस दिन कोई दूसरे का भार नहीं उठाएगा। यदि बहुत भार से टूटा जाता कोई पुकारे तो उससे कुछ (लेकर कोई) न ढोवेगा, चाहे वह सम्बन्धी ही क्यों न हो।'[4]
कर्म–भोग
- 'जो कुछ भी उन्होंने अर्जन किया, अवश्य सब प्राणी उसका फल पायेंगे, वह अन्याय से पीड़ित न होंगे।'[5]
- 'मेरे लिए मेरा कर्म, तुम्हारे लिए तुम्हारा कर्मः जो कुछ मैं करता हूँ, तुम उससे निर्युक्त हो, जो तुम करते हो, उससे मैं मुक्त हूँ।'[6]
इन वाक्यों से 'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभ’ यही सिद्धान्त निकलता है। किन्तु पश्चाताप (तोबा) और प्रेरित की सिफ़ारिश से भी पाप का क्षमा होना इस्लाम में माना गया ह-
- “यह जो अपने सेवकों से पश्चाताप को स्वीकार करता है, पापों को क्षमा करता है और जानता है कि जो कुछ तुम करते हो।“
इत्यादि वाक्य पश्चाताप से पाप के क्षमा होने के सिद्धान्त के प्रमाण हैं। एक जगह कहा है-
- “डरो उस दिन से, जब एक जीव दूसरे जीव के कर्म को न बदल लेगा और न सिफ़ारिश स्वीकार होगी, न उसके बदले में लिया जाएगा, और न ही वह सहायता पाए हुए होंगे।“[7]
यद्यपि यह वाक्य बतलाता है कि किसी कि सिफ़ारिश स्वीकृत न होगी, किन्तु तो भी 'सिफ़ारिश से पापमोचन’ इस्लाम में प्रायः सर्व–तंत्र सिद्धान्त है। परन्तु क़ुरान में इस सिद्धान्त का प्रतिपादक कोई भी स्पष्ट वाक्य नहीं है।
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