ऋषभदेव: Difference between revisions

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*महाराज नाभि ने सन्तान-प्राप्ति के लिये यज्ञ किया। तप: पूत ऋत्विजों ने श्रुति के मन्त्रों से यज्ञ-पुरुष की स्तुति की। श्री नारायण प्रकट हुए। विप्रों ने नरेश को उनके सौन्दर्य, ऐश्वर्य, शक्तिघन के समान ही पुत्र हो, यह प्रार्थना कीं उस अद्वय के समान दूसरा कहाँ से आये। महाराज नाभि की महारानी की गोद में स्वयं वही परमतत्व प्रकट हुआ।  
*महाराज नाभि ने सन्तान-प्राप्ति के लिये यज्ञ किया। तप: पूत ऋत्विजों ने श्रुति के मन्त्रों से यज्ञ-पुरुष की स्तुति की। श्री नारायण प्रकट हुए। विप्रों ने नरेश को उनके सौन्दर्य, ऐश्वर्य, शक्तिघन के समान ही पुत्र हो, यह प्रार्थना कीं उस अद्वय के समान दूसरा कहाँ से आये। महाराज नाभि की महारानी की गोद में स्वयं वही परमतत्व प्रकट हुआ।  
*महाराज नाभि कुमार ऋषभदेव को राज्य देकर वन के लिये विदा हो गये। देवराज [[इन्द्र]] को धरा का यह सौभाग्य ईर्ष्या की वस्तु जान पड़ा। अखिलेश की उपस्थिति से [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] ने स्वर्ग को अपनी सम्पदा से लज्जित कर दिया था। [[महेन्द्र]] वृष्टि के अधिष्ठाता हैं। वर्षा ही न हो तो पृथ्वी का सौन्दर्य रहे कहाँ। शस्य ही तो यहाँ की सम्पत्ति है। देवराज को लज्जित होना पड़ा। वर्षा बंद न हो सकी। भगवान ऋषभ ने अपनी शक्ति से वृष्टि की। अन्तत: देवराज ने अपनी पुत्री जयन्ती का विवाह उनसे कर दिया। उन धरानाथ से पृथ्वी और स्वर्ग में सम्बन्ध स्थापित हुआ।
*महाराज नाभि कुमार ऋषभदेव को राज्य देकर वन के लिये विदा हो गये। देवराज [[इन्द्र]] को धरा का यह सौभाग्य ईर्ष्या की वस्तु जान पड़ा। अखिलेश की उपस्थिति से [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] ने स्वर्ग को अपनी सम्पदा से लज्जित कर दिया था। [[महेन्द्र]] वृष्टि के अधिष्ठाता हैं। वर्षा ही न हो तो पृथ्वी का सौन्दर्य रहे कहाँ। शस्य ही तो यहाँ की सम्पत्ति है। देवराज को लज्जित होना पड़ा। वर्षा बंद न हो सकी। भगवान ऋषभ ने अपनी शक्ति से वृष्टि की। अन्तत: देवराज ने अपनी पुत्री जयन्ती का विवाह उनसे कर दिया। उन धरानाथ से पृथ्वी और स्वर्ग में सम्बन्ध स्थापित हुआ।
*ऋषभदेव जी को पूरे सौ पुत्र हुए । इनमें सबसे ज्येष्ठ चक्रवर्ती [[भरत]] हुए। इन्हीं आर्य भरत के नाम पर यह देश भारतवर्ष कहा जाता है। शेष पुत्रों में नौ ब्रह्मर्षि हो गये और इक्यासी महातपस्वी हुए। भरत का राज्याभिषेक करके भगवान ने वानप्रस्थ स्वीकार किया।  
*ऋषभदेव जी को पूरे सौ पुत्र हुए । इनमें सबसे ज्येष्ठ चक्रवर्ती [[भरत ॠषभदेव पुत्र|भरत]] हुए। इन्हीं आर्य भरत के नाम पर यह देश भारतवर्ष कहा जाता है। शेष पुत्रों में नौ ब्रह्मर्षि हो गये और इक्यासी महातपस्वी हुए। भरत का राज्याभिषेक करके भगवान ने वानप्रस्थ स्वीकार किया।  
*काक, गौ, मृग, कपि आदि के समान आचरण, आहार-ग्रहण, निवासादि जडयोग हैं। ये सिद्धिदायक हैं और संयम के साधक भी। भगवान ऋषभ ने इनको क्रमश: अपनाया, पूर्ण किया; किंतु इनकी सिद्धियों को स्वीकार नहीं किया। उनकी तपश्चर्या का अनुकरण जो सिद्धियों के लिये करते हैं, वे उन प्रभु के परमादर्श को छोड़कर पृथक् होते हैं।  
*काक, गौ, मृग, कपि आदि के समान आचरण, आहार-ग्रहण, निवासादि जडयोग हैं। ये सिद्धिदायक हैं और संयम के साधक भी। भगवान ऋषभ ने इनको क्रमश: अपनाया, पूर्ण किया; किंतु इनकी सिद्धियों को स्वीकार नहीं किया। उनकी तपश्चर्या का अनुकरण जो सिद्धियों के लिये करते हैं, वे उन प्रभु के परमादर्श को छोड़कर पृथक् होते हैं।  
*आत्मानन्द की वह उन्मद अवधूत अवस्था-बिखरे केश, मलावच्छन्न शरीर, न भोजन की सुध और न प्यास की चिन्ता किसी ने मुख में अन्न दे दिया तो स्वीकार हो गया। जहाँ शरीर को आवश्यकता हुई, मलोत्सर्ग हो गया। उस दिव्य देह का मल अपने सौरभ से योजनों तक देश को सुरभित कर देता। जहाँ शरीर का ध्यान नहीं, वहाँ शौचाचार का पालन कौन करे। यह आचरणीय नहीं-यह तो अवस्था है। शरीर की स्मृति न रहने पर कौन किसे सचेत करेगा। शास्त्र से परे है यह दशा।  
*आत्मानन्द की वह उन्मद अवधूत अवस्था-बिखरे केश, मलावच्छन्न शरीर, न भोजन की सुध और न प्यास की चिन्ता किसी ने मुख में अन्न दे दिया तो स्वीकार हो गया। जहाँ शरीर को आवश्यकता हुई, मलोत्सर्ग हो गया। उस दिव्य देह का मल अपने सौरभ से योजनों तक देश को सुरभित कर देता। जहाँ शरीर का ध्यान नहीं, वहाँ शौचाचार का पालन कौन करे। यह आचरणीय नहीं-यह तो अवस्था है। शरीर की स्मृति न रहने पर कौन किसे सचेत करेगा। शास्त्र से परे है यह दशा।  

Revision as of 09:35, 16 May 2010

  • महाराज नाभि ने सन्तान-प्राप्ति के लिये यज्ञ किया। तप: पूत ऋत्विजों ने श्रुति के मन्त्रों से यज्ञ-पुरुष की स्तुति की। श्री नारायण प्रकट हुए। विप्रों ने नरेश को उनके सौन्दर्य, ऐश्वर्य, शक्तिघन के समान ही पुत्र हो, यह प्रार्थना कीं उस अद्वय के समान दूसरा कहाँ से आये। महाराज नाभि की महारानी की गोद में स्वयं वही परमतत्व प्रकट हुआ।
  • महाराज नाभि कुमार ऋषभदेव को राज्य देकर वन के लिये विदा हो गये। देवराज इन्द्र को धरा का यह सौभाग्य ईर्ष्या की वस्तु जान पड़ा। अखिलेश की उपस्थिति से पृथ्वी ने स्वर्ग को अपनी सम्पदा से लज्जित कर दिया था। महेन्द्र वृष्टि के अधिष्ठाता हैं। वर्षा ही न हो तो पृथ्वी का सौन्दर्य रहे कहाँ। शस्य ही तो यहाँ की सम्पत्ति है। देवराज को लज्जित होना पड़ा। वर्षा बंद न हो सकी। भगवान ऋषभ ने अपनी शक्ति से वृष्टि की। अन्तत: देवराज ने अपनी पुत्री जयन्ती का विवाह उनसे कर दिया। उन धरानाथ से पृथ्वी और स्वर्ग में सम्बन्ध स्थापित हुआ।
  • ऋषभदेव जी को पूरे सौ पुत्र हुए । इनमें सबसे ज्येष्ठ चक्रवर्ती भरत हुए। इन्हीं आर्य भरत के नाम पर यह देश भारतवर्ष कहा जाता है। शेष पुत्रों में नौ ब्रह्मर्षि हो गये और इक्यासी महातपस्वी हुए। भरत का राज्याभिषेक करके भगवान ने वानप्रस्थ स्वीकार किया।
  • काक, गौ, मृग, कपि आदि के समान आचरण, आहार-ग्रहण, निवासादि जडयोग हैं। ये सिद्धिदायक हैं और संयम के साधक भी। भगवान ऋषभ ने इनको क्रमश: अपनाया, पूर्ण किया; किंतु इनकी सिद्धियों को स्वीकार नहीं किया। उनकी तपश्चर्या का अनुकरण जो सिद्धियों के लिये करते हैं, वे उन प्रभु के परमादर्श को छोड़कर पृथक् होते हैं।
  • आत्मानन्द की वह उन्मद अवधूत अवस्था-बिखरे केश, मलावच्छन्न शरीर, न भोजन की सुध और न प्यास की चिन्ता किसी ने मुख में अन्न दे दिया तो स्वीकार हो गया। जहाँ शरीर को आवश्यकता हुई, मलोत्सर्ग हो गया। उस दिव्य देह का मल अपने सौरभ से योजनों तक देश को सुरभित कर देता। जहाँ शरीर का ध्यान नहीं, वहाँ शौचाचार का पालन कौन करे। यह आचरणीय नहीं-यह तो अवस्था है। शरीर की स्मृति न रहने पर कौन किसे सचेत करेगा। शास्त्र से परे है यह दशा।
  • मुख में कंकड़ी रक्खे, निराहार, मौन, उन्मत्त की भाँति भारत के पश्चिमीय प्रदेश-कोंक, वेंक, कुटकादि के वनों में भगवान ऋषभदेव भ्रमण कर रहे थे। उनका शरीर तेजोमय, किंतु अनाहार से कृश हो गया था। वन में दावाग्नि लगी। देह आहुति बन गया।
  • जैन धर्म भगवान ऋषभ को प्रथम तीर्थंकर मानता है। उन्हीं के आचार की व्याख्या पीछे के जैनाचार्यों ने की है।


देखें:- ॠषभनाथ तीर्थंकर