ओस की बूंद -राही मासूम रज़ा: Difference between revisions

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Revision as of 06:36, 15 November 2011

ओस की बूंद -राही मासूम रज़ा
लेखक राही मासूम रज़ा
मूल शीर्षक ओस की बूंद
प्रकाशक राजकमल प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1970
ISBN 81-7178-871-8
देश भारत
पृष्ठ: 114
भाषा हिंदी
विषय सामाजिक
प्रकार उपन्यास

सन्‌ 1970 में प्रकाशित राही मासूम रज़ा के चौथे उपन्यास 'ओस की बूंद' का आधार भी हिन्दू-मुस्लिम समस्या है। इस उपन्यास में पाकिस्तान के बनने के बाद जो सांप्रदायिक दंगे हुए उन्हीं का जीता-जागता चित्रण एक मुसलमान परिवार की कथा द्वारा प्रस्तुत किया गया है।

कथानक

यह उपन्यास हिन्दू-मुस्लिम समस्याओं को लेकर शुरू होता है लेकिन आखिर तक आते-आते पाठकों को पता चलता है कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या वास्तव में कुछ नहीं है, यह सिर्फ राजनीति का एक मोहरा है, और जो असली चीज है वह है इंसान के पहलू में धड़कने वाला दिल और उस दिल में रहने वाले ज़ज्बात, और इन दोनों का मजहब और जात से कोई ताल्लुक नहीं। इसलिए साम्प्रदायिक दंगों के बीच सच्ची इंसानियत की तलाश करने वाला यह उपन्यास एक शहर और एक मजहब का होते हुए भी हर शहर और हर मजहब का है ! एक छोटी-सी जिन्दगी की दर्द भरी दास्तान जो ओस की बूँद की तरह चमकीली और कम उम्र है।[1]

भूमिका में राही का वक्तव्य

बड़े-बूढ़ों ने कई बार कहा कि गालियाँ न लिखो, जो ‘आधा गाँव’ में इतनी गालियाँ न होतीं तो तुम्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार अवश्य मिल गया होता, परंतु मैं यह सोचता हूँ कि क्या मैं उपन्यास इसीलिए लिखता हूँ कि मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिले ?

पुरस्कार मिलने में कोई नुक़सान नहीं, फ़ायदा ही है। परंतु मैं साहित्यकार हूँ। मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूँगा। और वह गालियाँ बकेंगे तो मैं अवश्य उनकी गालियाँ भी लिखूँगा। मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊँ और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दे दूँ कि जो एक शब्द भी अपनी तरफ से बोले तो गोली मार दूँगा। कोई बड़ा-बूढ़ा यह बताए कि जहाँ मेरे पात्र गाली बकते हैं, वहाँ मैं गालियाँ हटाकर क्या लिखूँ। डॉट-डॉट-डॉट ? तब तो लोग अपनी तरफ से गालियाँ गढ़ने लगेंगे ! और मुझे गालियों के सिलसिले में अपने पात्रों के सिवा किसी पर भरोसा नहीं है।

गालियाँ मुझे भी अच्छी नहीं लगतीं। मेरे घर में गाली की परंपरा नहीं है। परंतु लोग सड़कों पर गालियाँ बकते हैं। पड़ोस से गालियों की आवाज़ आती है और मैं अपने कान बंद नहीं करता। यही आप करते होंगे। फिर यदि मेरे पात्र गालियाँ बकते हैं, तो आप मुझे क्यों दौड़ाते हैं ? वे पात्र अपने घरों में गालियाँ बक रहे हैं। वे न मेरे घर में हैं, न आपके घर में। इसलिए साहब, साहित्य अकादमी के इनाम के लिए मैं अपने पात्रों की जबान नहीं काट सकता। इस उपन्यास के पात्र भी कहीं-कहीं गालियाँ बकते हैं। यदि आपने कभी गाली सुनी ही न हो तो आप यह उपन्यास न पढ़िए। मैं आपको ब्लश करवाना नहीं चाहता। - राही मासूम रज़ा


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ओस की बूँद (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 14 अक्टूबर, 2011।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख