टोपी शुक्ला -राही मासूम रज़ा: Difference between revisions
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Revision as of 08:12, 6 December 2011
1969 में राही मासूम रज़ा का तीसरा उपन्यास 'टोपी शुक्ला' प्रकाशित हुआ। राजनैतिक समस्या पर आधारित चरित प्रधान उपन्यास में भी गांव के निवासी की जीवन गाथा है। राही इस उपन्यास में बतलाते हैं कि सन् 1947 में भारत-पाकिस्तान के विभाजन का ऐसा कुप्रभाव पड़ा कि अब हिन्दुओं और मुसलमानों का मिलकर रहना अत्यधिक कठिन हो गया।
- कथानक
जासूसी उपन्यास पढ़ने वाले या यों भी सिर्फ़ उपन्यास पढ़ने वाले को उपन्यास का यह अंत, कि कहानी का हीरो "टोपी शुक्ला" आख़िर में आत्महत्या कर लेता है, शायद बिलकुल पसंद नहीं आएगा, लेकिन लेखक ने भूमिका की पहली ही पंक्ति में यह बात उजागर कर दी है तो ज़रूर कोई ख़ास बात होगी, उपन्यास के अंत में मालूम पड़ने वाली बातों को पाठक सामान्यतः रोमांच के रुप में लेता है। कहानी के ताने-बने में पाठक अपनी संभावनाएँ जोड़ने लगता है और कई बार सही निकलने पर खुश भी हो जाता है। लेकिन यहाँ जब पाठक को नायक का अंत पता है तो उपन्यास पढ़ते समय उसकी मनःस्थिति बिलकुल विपरीत होती है। अंत को दिमाग में रखकर वह कहानी की संकरी और चौड़ी गलियों में घूमता है। यहाँ पाठक की अपनी कल्पना शक्ति के लिए रास्ते बंद हो जाते हैं। और लेखक अपने सबसे पहले प्रयास में सफल हो जाता है कि कहानियाँ सिर्फ़ कल्पना लोक से नहीं उतरती वह कभी-कभी (और शायद अकसर) यथार्थ की ज़मीन पर रेंगते हुए मिलती है जिसे लेखक सहारा देकर खड़ा करता है और पाठक उसे संभाले हुए आगे बढ़ते हैं।[1]
- लेखक की सफलता
लेखक पाठक को बौद्धिक स्तर पर लाकर खड़ा करने में सफल हो जाता है जहां उसे कहानी के नायक की आत्महत्या के पीछे के मूल कारण, परिस्थितियों, परिस्थितियों के साथ जूझने की नायक की क्षमता और उन्हीं परिस्थितियों में पाठक की खुद की स्थिति पर विचार करने के लिए पूरी-पूरी जगह मिल जाती है।[2]
- लेखक का कथन
मुझे यह उपन्यास लिख कर कोई ख़ास खुशी नहीं हुई क्योंकि आत्महत्या सभ्यता की हार है। परन्तु टोपी के सामने कोई और रास्ता नहीं था। यह टोपी मैं भी हूं और मेरे ही जैसे और बहुत से लोग भी हैं। हम लोग कहीं न कहीं किसी न किसी अवसर पर “कम्प्रोमाइज़” कर लेते हैं। और इसीलिए हम लोग जी रहे हैं। टोपी कोई देवता या पैग़म्बर नहीं था, किंतु उसने “कम्प्रोमाइज़” नहीं किया और इसीलिए आत्महत्या कर ली। परन्तु आधा गाँव की ही तरह यह किसी एक आदमी या कई आदमियों की कहानी नहीं है। यह कहानी भी समय की है। इस कहानी का हीरो भी समय है। समय के सिवा कोई इस लायक नहीं होता कि उसे किसी कहानी का हीरो बनाया जाय। आधा गाँव में बेशुमार गालियाँ थीं। मौलाना ‘टोपी शुक्ला’ में एक भी गाली नहीं है। परन्तु शायद यह पूरा उपन्यास एक गंदी गाली है, और मैं यह गाली डंके की चोट बक रहा हूँ। यह उपन्यास अश्लील है…… जीवन की तरह।- राही मासूम रज़ा
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ टोपी शुक्ला- राही मासूम रज़ा (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 14 अक्टूबर, 2011।
- ↑ टोपी शुक्ला- राही मासूम रज़ा (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 14 अक्टूबर, 2011।
बाहरी कड़ियाँ
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