पद्मसंभव बौद्धाचार्य: Difference between revisions
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Revision as of 09:15, 21 August 2010
- भारत के पश्चिम में ओड्डियान नाम एक स्थान है। इन्द्रभूति नामक राजा वहाँ राज्य करते थे। अनेक रानियों के होने पर भी उनके कोई सन्तान न थी। उन्होंने महादान किया। याचकों की इच्छाएँ पूर्ण करने के लिए स्वर्णद्वीप में स्थित नागकन्या से चिन्तामणि रत्न प्राप्त रकने के लिए उन्होंने महासमुद्र की यात्रा की। लौटते समय उन्होंने एक द्वीप में कमल के भीतर स्थित लगभग अष्टवर्षीय बालक को देखा। उसे वे अपने साथ ले आए और उसका उन्होंने राज्याभिषेक किया। राजपुत्र का नाम सरोरुहवज्र रखा गया। राज्य के प्रति अरुचि के कारण उन्होंने त्रिशूल और खट्वाङ्ग लेकर, अस्थियों की माला धारण कर लंगे वदन होकर व्रताचरण आरम्भ कर दिया। नृत्य करते समय उनके खट्वाङ्ग से एक मन्त्री के पुत्र की मृत्यु हो गई। दण्डस्वरूप उन्हें वहां से निष्कासित कर दिया गया। वे ओड्डियान के दक्षिण में स्थित शीतवन नामक श्मशान में रहने लगे। वहाँ रहते हुए उन्होंने मन्त्रचर्या के बल से कर्म-डाकिनियों को अपने वश में कर लिया और लोगों ने उन्हें 'शान्तरक्षित' नाम दिया।
- वहाँ से वे जहोर प्रदेश के आनन्दवन नामक श्मशान में गए और विशिष्ट चर्या के कारण डाकिनी मारजिता द्वारा अभिषेक के साथ अधिष्ठित किये गए। तदनन्तर वहाँ से पुन: उस द्वीप में गयें, जहाँ वे पद्म में उत्पन्न हुए थे। वहाँ उन्होंने डाकिनी के संकेतानुसार गुह्यतन्त्र की साधना की और वज्रवाराही का दर्शन किया। वहीं पर उन्होंने समुद्रीय डाकिनियों को वश में किया और आकाशीय ग्रहों पर अधिकार प्राप्त किया। डाकिनियों ने इनका नाम 'रौद्रवज्रविक्रम' रखा।
- एक बार उनके मन में भारतीय आचार्यों से बौद्ध एवं बौद्धेतर शास्त्रों के अध्ययन की इच्छा उत्पन्न हुई। तदनुसार जहोर प्रदेश के भिक्षु शाक्यमुनि के साथ आचार्य प्रहति के पास पहुँचे। वहाँ उन्होंने व्रज्रज्या ग्रहण की और उनका नाम 'शाक्यसिंह' रखा गया।
- तदनन्तर वे मलय पर्वत पर निवास करने वाले आचार्य मञ्जुश्रीमित्र के पास गए। उन्होंने उन्हें भिक्षुणी आनन्दी के पास भेजा। भिक्षुणी आनन्दी ने उन्हें अनेक अभिषेक प्रदान किये। उनके सानिध्य में उन्हें आयुर्विद्या एवं महामुद्रा में अधिकार प्राप्त हुआ। तदनन्तर अन्य आचार्यां से उन्होंने प्रज्रकीलविधि, पद्मवाग्विधि, शान्त-क्रोध माया धर्म एवं उग्र मन्त्रों का श्रवण किया।
- तदनन्तर वे जहोर प्रदेश गये और वहाँ की राजकुमारी को वश में करके पोतलक पर्वत पर चले गए। उस पर्वत की गुफ़ा में उन्होंने अपरिमितायु मण्डल का प्रत्यक्ष दर्शन करके आयु:साधना की और तीन माह की साधना के अनन्तर वैरोचन अमितायु बुद्ध का साक्षात् दर्शन किया। इसके बाद वे जहोर और ओड्डियान गए और वहाँ के लोगों को सद्धर्म में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने अनेक तैर्थिकों को शास्त्रार्थ में परास्त किया तथा नेपाल जाकर महामुद्रा की सिद्धि की।
तिब्बत में बौद्धधर्म की स्थापना
- भोट देश में बौद्ध धर्म को प्रतिष्ठित करने में आचार्य पद्मसंभव की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यद्यपि भारतीय आचार्य शान्तरक्षित ने तत्कालीन भोट- सम्राट् ठिसोङृ देचन की सहायता से भोट देश में बौद्ध धर्म का प्रचार किया, किन्तु पद्मसंभव की सहायता के बिना वे उसमें सफल नहीं हो सके। उनकी ऋद्धि के बल से राक्षस, पिशाच आदि दुष्ट शक्तियाँ तिब्बत छोड़कर चामर द्वीप चली गईं।
- तिब्बत में उनकी शिष्य परम्परा आज भी कायम है, जो समस्त हिमालयी क्षेत्र में भी फैले हुए हैं। पद्मसंभव की बीज मन्त्र 'ओं आ: हूँ वज्रगुरु पद्म सिद्धि हूँ, का जप करने मं बौद्ध धर्मावलम्बी अपना कल्याण समझते हैं। आर्य अवलोकितेश्वर के बीज मन्त्र 'ओं मणि मद्मे हूँ' के बाद इसी मन्त्र का तिब्बत में सर्वाधिक जप होता है। प्रत्येक दशमी के दिन गुरु पद्मसंभव की विशेष पूजा बौद्ध धर्म के अनेक सम्प्रदायों में आयोजित की जाती है, जिसके पीछे यह मान्यता निहित है कि दशमी के दिन गुरु पद्मसंभव साक्षात् दर्शन देते हैं।
- ज्ञात है कि आचार्य शान्तरक्षित ने ल्हासा में 'समयस्' नामक विहार बनाना प्रारम्भ किया, किन्तु दुष्ट शक्तियों ने उसमें पुन:-पुन: विघ्न उपस्थित किया। जो भी निर्माण कार्य दिन में होता था, उसे रात्रि में ध्वस्त कर दिया जाता था। अन्त में आचार्य शान्तरक्षित ने राजा से भारत से आचार्य पद्मसंभव को बुलाने के लिए कहा। राजा ने दूत भेजकर आचार्य को तिब्बत आने के लिए निमन्त्रित किया। आचार्य पद्मसंभव महान् तान्त्रिक थे। तिब्बत आकर उन्होंने अमानुषी दुष्ट शक्तियों का निग्रह किया और कार्य-योग्य वातावरण का निर्माण किया। फलत: महान् 'समयस्' विहार का निर्माण संभव हो सका, जहाँ से चारों दिशाओं में धर्म का प्रत्येक मास की दशमी तिथियों में प्रत्यक्ष दर्शन देने का वचन दिया। क्रूर लोगों को विनीत करने के लिए वे यावत्-संसार लोक में स्थित रहेंगे- ऐसी बौद्ध श्रद्धालुओं की मान्यता है।