वो तुम ही थी -किरण मिश्रा: Difference between revisions

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अभी अभी लौटाये है मैंने सांसों के आमंत्रण को
तुम्हे सुना था मैं ने
तोड़ा है प्रेम के घेरे को
सावन की गीली हवाओं में 
कोई इंतजार नहीं
जब रोपती थी तुम कोई गीत नया 
नहीं चाहिए मुझे कोई देवदूत
जब साँझ पड़े अँधेरा हाथ पसारे 
मैं अपनी ज्योति और साथी स्वयं हूँ
भर रहा होता बाँहों में दिन को 
मैं खीचूंगी एक समान्तर रेखा
दिया जला प्रकाश को रस्ता दिखाती 
जो इतनी गहरी हो जितनी मैं
वो तुम ही थी 
पर हो हम अकेले अकेले
अशोक को साक्षी बना 
क्योंकि ये अकेलापन मुझे ले जायेगा मेरे ही अन्दर
अस्तित्व की रक्षा करती 
और तभी भेद सकूंगी सच और सपने के अंतर को
वो भी तुम थी
ये यात्रा तब तक होगी जब तक शून्य न आ जाये
इतिहास में मानवता की लाज बचाती 
तुम ही थी कोई और नहीं 
फिर आज तुम क्यों भूल बैठी हो खुद को 
तोड़ दो वक्त की बाड़ें 
बिछा लो समय को अपने लिए 
विकसित करो अपने अन्दर 
जीवन कर्म का सौन्दर्य 
फिर से सुनाओ संभावनाओं के गीत
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Revision as of 10:58, 10 April 2015

चित्र:Icon-edit.gif यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं।
वो तुम ही थी -किरण मिश्रा
पूरा नाम डॉ. किरण मिश्रा
जन्म 12 अक्टूबर, 1980
जन्म भूमि अंबिकापुर, छत्तीसगढ़
मुख्य रचनाएँ समाजशास्त्र: एक परिचय
भाषा हिन्दी
शिक्षा परास्नातक (समाजशास्त्र)
पुरस्कार-उपाधि माटी साहित्य सम्मान (2013), सरस्वती सम्मान (2012), निरालाश्री पुरस्कार (2015) आदि
नागरिकता भारतीय
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
किरण मिश्रा की रचनाएँ

तुम्हे सुना था मैं ने
सावन की गीली हवाओं में 
जब रोपती थी तुम कोई गीत नया 
जब साँझ पड़े अँधेरा हाथ पसारे 
भर रहा होता बाँहों में दिन को 
दिया जला प्रकाश को रस्ता दिखाती 
वो तुम ही थी 
अशोक को साक्षी बना 
अस्तित्व की रक्षा करती 
वो भी तुम थी
इतिहास में मानवता की लाज बचाती 
तुम ही थी कोई और नहीं 
फिर आज तुम क्यों भूल बैठी हो खुद को 
तोड़ दो वक्त की बाड़ें 
बिछा लो समय को अपने लिए 
विकसित करो अपने अन्दर 
जीवन कर्म का सौन्दर्य 
फिर से सुनाओ संभावनाओं के गीत

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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