गुरुकुल जीवन: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "पश्चात " to "पश्चात् ") |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
'''गुरुकुल''' अर्थात ऐसे विद्यालय जहाँ विद्यार्थी अपने [[परिवार]] से दूर गुरु के परिवार का हिस्सा बनकर शिक्षा प्राप्त करता है। [[भारत]] के प्राचीन इतिहास में ऐसे विद्यालयों का बहुत महत्व था। प्रसिद्ध आचार्यों के गुरुकुल में पढ़े हुए छात्रों का सब जगह बहुत सम्मान होता था।<br /> | |||
<br /> | |||
*द्विय या [[ब्राह्मण]], क्षत्रिय, वैश्यों को जीवन की पहली अवस्था में अच्छे गृहस्थजीवन की शिक्षा लेना अनिवार्य था। | *द्विय या [[ब्राह्मण]], क्षत्रिय, वैश्यों को जीवन की पहली अवस्था में अच्छे गृहस्थजीवन की शिक्षा लेना अनिवार्य था। | ||
*यह शिक्षा गुरुकुलों में जाकर प्राप्त की जाती थी, जहाँ वेदादि शास्त्रों के अतिरिक्त क्षत्रिय शस्त्रास्त्र विद्या और वैश्य कारीगरी, पशुपालन एवं कृषि का कार्य भी सीखता था। | *यह शिक्षा गुरुकुलों में जाकर प्राप्त की जाती थी, जहाँ वेदादि शास्त्रों के अतिरिक्त क्षत्रिय शस्त्रास्त्र विद्या और वैश्य कारीगरी, पशुपालन एवं कृषि का कार्य भी सीखता था। | ||
Line 4: | Line 6: | ||
*धनी, निर्धन सभी विद्यार्थियों का एक ही प्रकार का जीवन होता था। | *धनी, निर्धन सभी विद्यार्थियों का एक ही प्रकार का जीवन होता था। | ||
*इस तपस्थलों से निकलने पर स्नातक समाज का सम्माननीय सदस्य के रूप में आदृत होता एवं [[विवाह संस्कार|विवाह]] कर गृहस्थ आश्रम का अधिकारी बनता था। | *इस तपस्थलों से निकलने पर स्नातक समाज का सम्माननीय सदस्य के रूप में आदृत होता एवं [[विवाह संस्कार|विवाह]] कर गृहस्थ आश्रम का अधिकारी बनता था। | ||
*[[प्राचीन भारत]] की शिक्षा व्यवस्था में गुरुकुलों का बड़ा महत्व था। 6 से 11 वर्ष की उम्र के बालक गुरुओं के पास जाते और वहीं रहकर विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करते थे। वे 25 वर्ष की उम्र तक अंतेवासी बनकर गुरु के आचरण और व्यक्तित्व से शिक्षा ग्रहण करते।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय संस्कृति कोश |लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=राजपाल एंड सन्ज, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन=भारतकोश पुस्तकालय |संपादन= |पृष्ठ संख्या=287|url=|ISBN=}}</ref> | |||
*गुरुकुलों के भरण-पोषण का दायित्व राज्य का था। अंतेवासी विद्यार्थी कुलपति के [[परिवार]] का सदस्य होता था और उसके चतुर्दिक विकास का पूरा उत्तरदायित्व कुलपति के ऊपर रहता था। | |||
*विदेशी यात्रियों के वर्णनों से विदित होता है कि गुरुकुलों में दूर-दूर के विद्यार्थी अध्ययन के लिए आया करते थे। | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}} | |||
{{लेख प्रगति | |||
|आधार= | |||
|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 | |||
|माध्यमिक= | |||
|पूर्णता= | |||
|शोध= | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
[[Category: | [[Category:प्राचीन भारत का इतिहास]][[Category:शिक्षा कोश]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:संस्कृति कोश]] | ||
[[Category:संस्कृति कोश]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ |
Latest revision as of 07:05, 1 July 2021
गुरुकुल अर्थात ऐसे विद्यालय जहाँ विद्यार्थी अपने परिवार से दूर गुरु के परिवार का हिस्सा बनकर शिक्षा प्राप्त करता है। भारत के प्राचीन इतिहास में ऐसे विद्यालयों का बहुत महत्व था। प्रसिद्ध आचार्यों के गुरुकुल में पढ़े हुए छात्रों का सब जगह बहुत सम्मान होता था।
- द्विय या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को जीवन की पहली अवस्था में अच्छे गृहस्थजीवन की शिक्षा लेना अनिवार्य था।
- यह शिक्षा गुरुकुलों में जाकर प्राप्त की जाती थी, जहाँ वेदादि शास्त्रों के अतिरिक्त क्षत्रिय शस्त्रास्त्र विद्या और वैश्य कारीगरी, पशुपालन एवं कृषि का कार्य भी सीखता था।
- गुरुकुल की सेवा, भिक्षाटन पर जीविका, गुरु के पशुओं को चराना, कृषिकर्म करना, समिधा जुटाना आदि कर्म करने के पश्चात् अध्ययन में मन लगाना पड़ता था।
- धनी, निर्धन सभी विद्यार्थियों का एक ही प्रकार का जीवन होता था।
- इस तपस्थलों से निकलने पर स्नातक समाज का सम्माननीय सदस्य के रूप में आदृत होता एवं विवाह कर गृहस्थ आश्रम का अधिकारी बनता था।
- प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था में गुरुकुलों का बड़ा महत्व था। 6 से 11 वर्ष की उम्र के बालक गुरुओं के पास जाते और वहीं रहकर विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करते थे। वे 25 वर्ष की उम्र तक अंतेवासी बनकर गुरु के आचरण और व्यक्तित्व से शिक्षा ग्रहण करते।[1]
- गुरुकुलों के भरण-पोषण का दायित्व राज्य का था। अंतेवासी विद्यार्थी कुलपति के परिवार का सदस्य होता था और उसके चतुर्दिक विकास का पूरा उत्तरदायित्व कुलपति के ऊपर रहता था।
- विदेशी यात्रियों के वर्णनों से विदित होता है कि गुरुकुलों में दूर-दूर के विद्यार्थी अध्ययन के लिए आया करते थे।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय संस्कृति कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 287 |