शिवराम कारंत: Difference between revisions
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शिवराम कारंत
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पूरा नाम | के शिवराम कारंत |
जन्म | 10 अक्टूबर 1902 |
जन्म भूमि | कोटा, कर्नाटक |
मृत्यु | 9 दिसम्बर 1997 |
कर्म भूमि | कर्नाटक |
कर्म-क्षेत्र | स्वतंत्र लेखन |
मुख्य रचनाएँ | गर्भगुडि, एकांत नाटकगलु, मुक्तद्वार, चोमन दुड़ि, मरलि मण्णिगे, बेट्टद जीव |
विषय | नाटक, उपन्यास, कहानी, आत्मकथा |
भाषा | कन्नड़ |
पुरस्कार-उपाधि | डी.लिट., साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
के शिवराम कारंत (जन्म- 10 अक्टूबर 1902, कोटा, कर्नाटक; मृत्यु- 9 दिसम्बर 1997)। के शिवराम कारंत कन्नड़ भाषा के विख्यात साहित्यकार थे।
व्यक्तिगत जीवन
के शिवराम कारंत के मन में बचपन से ही प्रकृति के प्रति बहुत आकर्षण था। स्कूल की पढ़ाई ने उन्हे कभी नही बांधा। यही कारण था कि 1922 में गांधीजी की पुकार कान में पड़ते ही वह कॉलेज छोड़कर रचनात्मक कार्यक्रम में लग गए। कुछ ही समय के भीतर उन्हे लगा समाज को सुधारने से पहले लोगों की प्रकृति और सारी स्थिति को समझ लेना बहुत आवश्यक है, अत: वहीं से वह एक स्वत्रंत पथ का निर्माण करने में जुट पड़े उन्होने अपनी पैनी दृष्टि से बहुत पहले ही भांप लिया था कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में क्या कमी और दोष हैं और फिर अवसर आते ही अपने विचार को व्यावहारिक रुप देने के लिए वह स्वयं पाठ्य पुस्तकें लिखने, शब्दकोशों तथा विश्वकोशों को तैयार करने में जी जान से जुट पड़े। शुरुआत उन्होने कर्नाटक कला से की और फिर वह संपूर्ण विश्वव्यापी कला तक पहुँच गए।
कला विषयक ज्ञान
अपने कला विषयक ज्ञान के बल पर कारंत ने यक्षगान के अंतरंग मे प्रवेश करने का साहस किया। कला विषयक क्षेत्र में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कारंत ने अपना ध्यान मानव और उसकी परिस्थिति को देखने पर केंद्रित किया। उनके कई उपन्यास एक के बाद एक प्रकाशित हुए। इससे स्पष्ट होता है कि चारों ओर के वास्तविक जीवन को उन्होने बहुत सूक्ष्मता के साथ परखा था। सबसे अधिक वह इससे प्रभावित हुए कि बड़ी दु:खद घटनाओ के बीच भी मनुष्य की सहज जीने की इच्छा बनी रहती है।
उद्देश्य
मूकज्जिय कनसुगलु में कारंत ने अन्वेषण की एक बिल्कुल नई और विराट यात्रा की है। उनका उद्देश्य पुस्तक के माध्यम से प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान काल तक की मानव सभ्यता का परिचय देना था। उन्होने एक ऐसी विधवा वृद्धा की कल्पना की, जिसकी कुछ अधिमानसिक संवेदनाएँ जाग्रत थी। वह इस कृति द्वारा यह प्रमाणित करना चाहते थे कि मनुष्य की ईश्वर संबंधी धारणा इतिहास में निरंतर बदलती आई है और सेक्स जैसी जैविक प्रवृत्तियाँ जीवन का इतना अनिवार्य अंग है कि वैराग्य धारण के नाम उनकी वर्जना सर्वथा अनुचित है। यह वृद्धा देश के प्राचीन मूल्यों के प्रतिनिधि - रूप पीपल के पेड़ तले बैठ कर अपने पौत्र को, अर्थात् हम सभी को सुदूर अतीत का दर्शन कराती है और इस प्रकार मिथ्या और छलनाओं के आवरण को उघाड़ देती है। प्रत्येक प्रसंग मे उनका बल एक ही बात पर होता कि हम जीवन को, जैसा वह था और जैसा अब है एक साथ लेते हुए संपूर्ण रुप में देखें। आदि से अंत तक इस उपन्यास में काल के सौ छोरों को एक साथ लेकर कांरत ने अपना वक्तव्य वृद्धा मूकज्जी के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
कृतियाँ
शिवराम कारंत की प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार है:-
नाटक
उपन्यास
- देवदूतरु (1928)
- सरसम्मन समाधि (1937)
- मुगिद युद्ध(1945)
- कुडियर कूसु (1951)
- गोंडारण्य (1954)
- जगदोद्धारना (1960)
- उक्किदा नोरे (1970)
- केवल मनुष्यरु (1971)
- मृजन्म (1974)
कहानी
यात्रा-वृतांत
- चित्रमय दक्षिण कन्नड़ (1934)
निबंध
- ज्ञान
- चिक्कदोड्डवरू
- हल्लिय हत्तु समस्तरु
आत्मकथा
- हुच्चु मनस्सिन हत्तु मुखगलु
कला विषयक
- भारतीय चित्रकले (1930)
- यक्षगान (1971)
- चालुक्य वास्तुशिल्प (1969)
- भारतीय वास्तुशिल्प (1975)
- कला प्रपंच (1978)
विश्व कोश, शब्दकोश व ज्ञान विषयक
पुरस्कार
कांरत को डी.लिट., पद्म भूषण (आपातकाल में लौटा दिया), साहित्य अकादमी पुरस्कार 1959, 1977 में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया।
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