पाशुपत संप्रदाय: Difference between revisions

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Revision as of 14:25, 20 February 2011

पाशुपत संप्रदाय शिव को सर्वोच्च शक्ति मानकर उपासना करने वाला सबसे पहला हिंदू संप्रदाय है। बाद में इसने असंख्य उपसंप्रदायों को जन्म दिया, जो गुजरात और महाराष्ट्र में कम से कम 12वीं शताब्दी तक फला-फूला तथा जावा और कंबोडिया भी पहुंचा। पाशुपत संप्रदाय ने पाशुपत नाम शिव की एक उपाधि पशुपति से लिया है, जिसका अर्थ है 'पशुओं के देवता', इसका अर्थ बाद में विस्तृत होकर 'प्राणियों के देवता' हो गया।

पौराणिक महत्व

महाभारत में पाशुपत संप्रदाय का उल्लेख है। शिव को ही इस व्यवस्था का प्रथम गुरु माना गया है। बाद के साहित्य, जैसे वायु पुराण और लिंग पुराण में वर्णित जनश्रुतिओं के अनुसार शिव ने स्वयं यह रहस्योद्घाटन किया था की विष्णु के वासुदेव-कृष्ण के रूप में अवतरण के दौरान वह भी प्रकट होंगे।
शिव ने संकेत दिया कि वह एक मृत शरीर में प्रविष्ट होंगे और लकुलिन (या नकुलिन अथवा लकुलिश, लकुल का अर्थ है गदा) के रूप में अवतार लेंगे। 10वीं तथा 13वीं शताब्दी के अभिलेख इस जनश्रुति का समर्थन करते प्रतीत होते हैं, चूंकि उनमें लकुलिन नामक एक उपदेशक का उल्लेख मिलता है, जिनके अनुयायी उन्हें शिव का एक अवतार मानते थे। वासुदेव संप्रदाय की तरह कुछ इतिहासकार पाशुपत के उद्भव को दूसरी शताब्दी के ई.पू. का मानते हैं, जबकि अन्य इसके उद्भव की तिथि दूसरी शताब्दी की ई. को मानते हैं।

योगप्रथा

पाशुपत द्वारा अंगीकृत की गई योग प्रथाओं में दिन में तीन बार शरीर पर राख मलना, ध्यान लगाना और शक्तिशाली शब्द ‘ओम’ का जाप करना शामिल है। इस विचारधारा की ख्याति को तब धक्का लगा, जब कुछ रहस्यवादी प्रथाओं में अति की जाने लगी। पाशुपत सिद्धांत से दो अतिवादी विचारधाराएं, कालमुख और कापलिक के साथ-साथ एक मध्यम संप्रदाय, शैव (जो सिद्धांत विचारधारा भी कहलाता है), का विकास हुआ। अधिक तार्किक तथा स्वीकार्य शैव से, जिसके विकास से आधुनिक शैववाद का उदय हुआ, भिन्न विशिष्टता बनाए रखने के लिए पाशुपत तथा अतिवादी संप्रदाय अतिमार्गिक (मार्ग से भटकी हुई विचारधारा) कहलाती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ