प्रपत्तिमार्ग: Difference between revisions
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*<span>पुस्तक हिन्दू धर्म कोश से पेज संख्या 421 | '''डॉ. राजबली पाण्डेय''' |उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) |राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ </span> | *<span>पुस्तक हिन्दू धर्म कोश से पेज संख्या 421 | '''डॉ. राजबली पाण्डेय''' |उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) |राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ </span> |
Revision as of 09:59, 21 March 2011
प्रपत्तिमार्ग, भक्तिमार्ग का विकसित रूप है, जिसका प्रादुर्भाव दक्षिण भारत में 13वीं शताब्दी में हुआ। देवता के प्रति क्रियात्मक प्रेम अथवा तल्लीनता को भक्ति कहते हैं, जबकि प्रपत्ति निष्क्रिय सम्पूर्ण आत्मसमर्पण है।
शाखाएँ
दक्षिण भारत में रामानुजीय वैष्णव विचारधारा की दो शाखाएँ हैं-
- बड़क्कलइ
बड़क्कलइ (कांजीवरम् के उत्तर का भाग) है। यह शाखा भक्ति को अधिक प्रश्रय देती है। बड़क्कलइ शाखा के सदस्यों की तुलना एक कपिशिशु से की जाती है, जो कि अपनी मां को पकड़े रहता है और वह उसे लेकर कूदती रहती है (वानरी धृति)।
- तेनकलइ
तेनकलइ (कांजीवरम् के दक्षिण का भाग) है। यह शाखा प्रपत्ति पर अधिक बल देती है। तेनकलइ शाखा के सदस्यों की तुलना मार्जारशिशु से की जाती है, जो बिल्कुल निष्क्रिय रहता है और उसे मां (बिल्ली) अपने मुख में दबाकर चलती है (वैडाली धृति)।
एतदर्थ इन्हें 'मर्कट-न्याय' तथा 'मार्जार-न्याय' के हास्यास्पद नामों से भी लोग पुकारते हैं। दोनों के प्रति उपास्य देव की दृष्टि क्रमश: 'सहेतुक कृपा' तथा 'निर्हेतुक कृपा' की रहती है। इसकी तुलना पाश्चात्य धार्मिक विचारकों की 'सहयोगी कृपा' तथा 'स्वत: अनिवार्य कृपा' के साथ में की जा सकती है।
ग्रहण
जो भी व्यक्ति प्रपत्तिमार्ग को ग्रहण कर लेता है, उसे 'प्रपन्न' अथवा शरणागत कहते हैं। प्रपत्ति मार्ग के उपदेशकों का कहना है कि ईश्वर पर निरन्तर एकतान ध्यान केन्द्रित करना (जिसकी भक्तिमार्ग में आवश्यकता है और जो मुक्ति का साधन है) मनुष्य की सर्वोपरी शान्त वृत्ति और विवेक की तीव्रता से ही सम्भव है, जिसमें अधिकांश मनुष्य खरे नहीं उतर सकते। इसलिए ईश्वर ने अपनी करुणाशीलता के कारण प्रपत्ति का मार्ग प्रकट किया है, जिसमें बिना किसी विशेष प्रयास के आत्मसमर्पण किया जा सकता है। इसमें किसी जाति, वर्ण अथवा वंश की अपेक्षा नहीं है। यद्यपि यह मार्ग दक्षिण भारत में प्रचलित रहा है, किन्तु इसका प्रचार परवर्त्ती काल में उत्तर भारतीय गंगा- यमुना के केन्द्रस्थल में भी हुआ तथा इसके अवलम्ब से अनेकों पवित्र आत्माओं को ईश्वर का दिव्य अनुग्रह प्राप्त हुआ (यथा चरणदासी संत)। इस विचार का और भी विकसित रूप 'आयार्याभिमान' है। आचार्य मनुष्यों को ईश्वर का मार्ग प्रदर्शित करता है। अत: पहले उसी के सम्मुख आत्मसमर्पण की आवश्यकता होती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- पुस्तक हिन्दू धर्म कोश से पेज संख्या 421 | डॉ. राजबली पाण्डेय |उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) |राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ