यशवंतसिंह: Difference between revisions
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जोधपुर नरेश यशवंत सिंह [[औरंगज़ेब]] के दरबार का दूसरा प्रभावशाली सामंत था । उससे पीछा छुड़ाने को औरंगजेब ने उसे राजधानी से बहुत दूर उत्तर में काबुल का सूबेदार बना कर भेज दिया था । काबुल सूबे के खैबर दर्रा में उन दिनों कबाइली पठानों ने बड़ा उपद्रव मचा रखा था । उनसे संघर्ष करते हुए मु्गलों के कई सूबेदार मारे जा चुके थे । यशवंत सिंह औरंगजेब की धूर्तता को समझता था और अपनी वृद्धावस्था में उस कठिन अभियान के लिए इतनी दूर जाना भी नहीं चाहता था, किंतु शाही कोप से बचने के लिए वह चला गया था। सन् 1671 से सन् 1679 तक के 8 वर्षों में वह काबुल में ही रहा था । उस काल में उसने पठान उपद्रवियों को दबा कर वहाँ शांति और व्यवस्था कायम कर दी थी । अंत में 10 दिसंबर 1679 में उसका काबुल में ही देहांत हो गया । ऐसा जान पड़ता है यशवंत सिंह की दाह−क्रिया काबुल में ही हुई थी और उसके अस्थि−अवशेष आगरा लाये गये थे । उनके साथ उनकी 9 रानियाँ [[आगरा]] में सती हुई थी । उक्त स्थल पर एक छतरी बनाई गई जो अभी तब विद्यमान है। | जोधपुर नरेश यशवंत सिंह [[औरंगज़ेब]] के दरबार का दूसरा प्रभावशाली सामंत था । उससे पीछा छुड़ाने को औरंगजेब ने उसे राजधानी से बहुत दूर उत्तर में काबुल का सूबेदार बना कर भेज दिया था । काबुल सूबे के खैबर दर्रा में उन दिनों कबाइली पठानों ने बड़ा उपद्रव मचा रखा था । उनसे संघर्ष करते हुए मु्गलों के कई सूबेदार मारे जा चुके थे । यशवंत सिंह औरंगजेब की धूर्तता को समझता था और अपनी वृद्धावस्था में उस कठिन अभियान के लिए इतनी दूर जाना भी नहीं चाहता था, किंतु शाही कोप से बचने के लिए वह चला गया था। सन् 1671 से सन् 1679 तक के 8 वर्षों में वह काबुल में ही रहा था । उस काल में उसने पठान उपद्रवियों को दबा कर वहाँ शांति और व्यवस्था कायम कर दी थी । अंत में 10 दिसंबर 1679 में उसका काबुल में ही देहांत हो गया । ऐसा जान पड़ता है यशवंत सिंह की दाह−क्रिया काबुल में ही हुई थी और उसके अस्थि−अवशेष आगरा लाये गये थे । उनके साथ उनकी 9 रानियाँ [[आगरा]] में सती हुई थी । उक्त स्थल पर एक छतरी बनाई गई जो अभी तब विद्यमान है। | ||
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राजा यशवंत सिंह / Raja Yashvant Singh
जोधपुर नरेश यशवंत सिंह औरंगज़ेब के दरबार का दूसरा प्रभावशाली सामंत था । उससे पीछा छुड़ाने को औरंगजेब ने उसे राजधानी से बहुत दूर उत्तर में काबुल का सूबेदार बना कर भेज दिया था । काबुल सूबे के खैबर दर्रा में उन दिनों कबाइली पठानों ने बड़ा उपद्रव मचा रखा था । उनसे संघर्ष करते हुए मु्गलों के कई सूबेदार मारे जा चुके थे । यशवंत सिंह औरंगजेब की धूर्तता को समझता था और अपनी वृद्धावस्था में उस कठिन अभियान के लिए इतनी दूर जाना भी नहीं चाहता था, किंतु शाही कोप से बचने के लिए वह चला गया था। सन् 1671 से सन् 1679 तक के 8 वर्षों में वह काबुल में ही रहा था । उस काल में उसने पठान उपद्रवियों को दबा कर वहाँ शांति और व्यवस्था कायम कर दी थी । अंत में 10 दिसंबर 1679 में उसका काबुल में ही देहांत हो गया । ऐसा जान पड़ता है यशवंत सिंह की दाह−क्रिया काबुल में ही हुई थी और उसके अस्थि−अवशेष आगरा लाये गये थे । उनके साथ उनकी 9 रानियाँ आगरा में सती हुई थी । उक्त स्थल पर एक छतरी बनाई गई जो अभी तब विद्यमान है।
राजा यशवंतसिंह चतुर राजनीतिज्ञ, कुशल सेनानी और वीर योद्धा होने के साथ ही साथ कवि, साहित्याचार्य और तत्वज्ञानी था तथा साहित्यकारों एवं विद्वानों का वह आश्रयदाता था । हिन्दी साहित्य में उसकी प्रसिद्धि काव्यशास्त्र के आचार्य के रूप में है । उसका "भाषाभूषण" ग्रंथ हिन्दी अलंकार शास्त्र की एक प्रसिद्ध रचना है । उसके अतिरिक्त उसके कई ग्रंथ तत्वज्ञान से संबंधित हैं ।