प्रयोग:रविन्द्र१: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
No edit summary
No edit summary
Line 18: Line 18:
{{cite web |url=http://khoj.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%9F |title=वास्तुकला |accessmonthday=18 अगस्त |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=[[:kh:मुखपृष्ठ|भारतखोज]] |language=हिन्दी }}
{{cite web |url=http://khoj.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%9F |title=वास्तुकला |accessmonthday=18 अगस्त |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=[[:kh:मुखपृष्ठ|भारतखोज]] |language=हिन्दी }}
<references/>
<references/>
[[Category:वास्तुकला]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Revision as of 06:28, 18 August 2011

वास्तुकला भवनों के विन्यास, आकल्पन, और रचना की, तथा परिवर्तनशील समय, तकनीक और रुचि के अनुसार मानव की आवश्यकताओं को संतुष्ट करने योग्य सभी प्रकार के स्थानों के तर्कसंगत एवं बुद्धिसंगत निर्माण की कला, विज्ञान तथा तकनीक का संमिश्रण वास्तुकला की परिभाषा में आता है। इसका और भी स्पष्टकीण किया जा सकता है। वास्तुकला ललित कला की वह शाखा रही है, जिसका उद्देश्य औद्योगिकी का सहयोग लेते हुए उपयोगिता की दृष्टि से उत्तम भवन-निर्माण करना है, जिनके पर्यावरण सुसंस्कृत एवं कलात्मक रुचि के लिए अत्यंत प्रिय, सौंदर्य-भावना के पोषक तथा आनंदकर एवं आनंदवर्धक हों।

अभिप्राय

प्रकृति, बुद्धि एवं रुचि द्वारा निर्धारित और नियमित कतिपय सिद्धांतों और अनुपातों के अनुसार रचना करना इस कला का संबद्ध अंग है। नक्शों और पिंडों का ऐसा विन्यास करना और संरचना को अत्यंत उपयुक्त ढंग से समृद्ध करना, जिससे अधिकतम सुविधाओं के साथ रोचकता, सौंदर्य, महानता, एकता, और शक्ति की सृष्टि हो, यही वास्तुकौशल है। प्रारंभिक अवस्थाओं में, अथवा स्वल्पसिद्धि के साथ, वास्तुकला का स्थान मानव के सीमित प्रयोजनों के लिए आवश्यक पेशों, या व्यवसायों में, प्राय: मनुष्य के लिए किसी प्रकार का रक्षास्थान प्रदान करने के लिए होता है। किसी जाति के इतिहास में वास्तुकृतियाँ महत्वपूर्ण तब होती हैं, जब उनमें किसी अंश तक सभ्यता, समृद्धि और विलासिता आ जाती है, और उनमें जाति के गर्व, प्रतिष्ठा, महत्वाकांक्षा, और आध्यात्मिकता की प्रकृति पूर्णतया अभिव्यक्त होती है।

वास्तुकला का इतिहास

प्राचीन काल में वास्तुकला सभी कलाओं की जननी कही जाती थी। किंतु वृत्ति के परिवर्तन के साथ और संबद्ध व्यवसायों के भाग लेने पर यह समावेशक संरक्षण की मुहर अब नहीं रही। वास्तुकला पुरातन काल की सामाजिक स्थिति को प्रकाश में लाने वाला मुद्रणालय भी कही गई है। यह वहीं तक ठीक है, जहाँ तक सामाजिक एवं अन्य उपलब्धियों का प्रभाव है। यह भी कहा गया है कि वास्तुकला भवनों के अलंकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जहाँ तक ऐतिहासिक वास्तुकला का संबंध है, यह अंशत: सत्य है। फिर वास्तुकला सभ्यता का साँचा भी कही गई है। जहाँ तक पुरातत्वीय प्रभाव है, यह ठीक है, किंतु वास्तुकला के इतिहास पर एक संक्षिप्त दृष्टिपात से यह स्पश्ट हो जाएगा कि मानव के प्राचीनतम प्रयास शिकारियों के आदिकालीन गुफा-आवासों, चरवाहों के चर्म-तंबुओं और किसानों के झोपडों के रूप में दिखाई पड़ते हैं। नौका-आवास और वृक्षों पर बनी झोपड़ियाँ पुराकालीन विशिष्टताएँ हैं। धार्मिक स्मारक बनाने के आदिकालीन प्रयास पत्थर और लकड़ी की बाड़ के रूप में थे। इन आदिकालीन प्रयासों में और उनके सुधरे हुए रूपों में सभी देशों में कुछ न कुछ बातें ऐसी महत्वपूर्ण और विशिष्ट प्रकार की हैं कि बहुत दिन बाद की महानतम कला कृतियों में भी वे प्रत्यक्ष हैं।

विकास

युगों के द्रुत विकासक्रम में वास्तुकला विकसी, ढली, और मानव की परिवर्तनशील आवश्कताओं के अनुसार उसमें परिवर्तन हुआ। मिस्र के सादे स्वरूप, चीन के मानक अभिकल्प-स्वरूप, भारत के विदेशी तथा समृद्ध स्वरूप, मैक्सिको के मय और ऐजटेक की अनगढ़ महिमा, यूनान के अत्यंत विकसित देवायतन, रोमन साम्राज्य की बहुविध आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले जटिल प्रकार के भवन, पुराकालीन आडंबरहीन गिरजे, महान गाथिक गिरजा भवन और चित्रोपम दुर्ग, तुर्की इमारतों के उत्कृष्ट विन्यास एवं अनुपात, और यूरोपीय पुनरुत्थान के भव्य वास्तुकीय स्मारक ऐतिहासिक वास्तु के सतत विकास का लेखा प्रस्तुत करते हैं। ये सब इमारतें मानव विकास के महान युगों की ओर इंगित करती हैं, जिनमें वास्तुकला जातीय जीवन से अत्यधिक संबंधित होने के कारण उन जातियों की प्रतिभा और महत्वाकांक्षा का, जिनकी उनके स्मारकों पर सुस्पष्ट छाप हैं, दिग्दर्शन कराती हैं।

उपलब्धि तथा गुण

प्रत्येक ऐतिहासिक वास्तु की उपलब्धियाँ मोटे तौर से दो मूलभूत सिद्धांतों से निश्चित की जा सकती हैं, एक जो संकल्पना में अंतर्निहित है, और दूसरा जो सर्वोच्च विशिष्टता का द्योतक है। मिस्री वास्तु में यह युगोत्तरजीवी विशाल और भारी स्मारकों द्वारा व्यक्त रहस्यमयता है, असीरियाई, बेबीलोनी और ईरानी कला में यह शस्त्रशक्ति और विलासी जीवन था। यूनानी कला में यह निश्चयात्मक आयोजना और संशोधित दृष्टिभ्रम था, जिसके फलस्वरूप सादगी और परिष्कृत पूर्णता आई। रोमनों में यह भव्यता, आनंद एवं शक्ति का प्रेम था, जिसके फलस्वरूप विलक्षण वैज्ञानिक निर्माण हुआ। पुराकालीन ईसाइयों में यह ईसामसीह की सच्ची सादगी और गौरव व्यक्त करनेवाले गिरजाघरों के निर्माण के प्रति भारी उत्साह के रूप में था; गाथिक निर्माताओं में यह संरचना यांत्रिकी के ज्ञान से युक्त उत्कट शक्ति थी; इतालवी पुनरुद्धार में यह उस युग की विद्वत्ता थी। बौद्ध और हिन्दू वास्तुकला का उत्कृष्ट गुण उसका आध्यात्मिक तत्व है, जो उसके विकास में आद्योपांत प्रत्यक्ष है। मुसलमानी वास्तुकला में अकल्पनीय धन संपदा, ठाट, और विशाल भूखंड पर उसका प्रभुत्व झलकता है; जबकि भारत का भीमकाय अफ़ग़ान का वास्तु उस शासन की आक्रामक प्रवृत्ति प्रकट करता है; किंतु मुग़ल स्मारक उत्कृष्ट अनुपात और कृति संबंधी प्रेम को दर्शाने में श्रेष्ठ हैं तथा भारत की गर्मी में उनका जीवन भली भाँति व्यक्त करते हैं। इस प्रकार भूतकालीन कृतियों में हम देखते हैं कि चट्टनों, ईटों और पत्थरों में मूर्त वे विचार ही हैं जो उपर्युक्त और विश्वसनीय ढंग से किसी न किसी रूप में गौरव के शिखर पर पहुँची हुई सभ्याताओं की तत्कलीन धर्म संबंधी या अन्य जागृति व्यक्त करते हैं।

अनुसरण तथा सामंजस्य

इन तमाम सालों में वास्तुकला सामयिक चेतना पर्यावरण तथा स्थानीय पृष्ठभूमि के सामंजस्य में विकसित हुई। आज भी हम प्रतिभावान व्यक्तियों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त स्वरूप टटोलते रहते हैं। आज कुछ ऐसे वास्तुक हैं जो भूत का अनुसरण करने में ही संतुष्ट हैं। कुछ अन्य हैं जो विदेशी ढंग का अनुकरण करने का प्रयास करते हैं। बहुत थोड़े से ऐसे हैं, जो अपने समय, गति और राष्ट्रीय दृष्टिकाण के अनुरूप वास्तु का विकास करने का प्रयास कर रहे हैं। इस छोटे से वर्ग का प्रयास नया संघात प्रस्तुत करने का है, जो मनुष्य को नए विचार सोचने और धारण करने की प्रेरणा देता है। इस प्रकार से हमारे युग के भवन निर्माण करने का प्रयास करते हैं और बाद में ये ही भवन मानव शरीर और मस्तिष्क के स्वस्थ विकास को प्रोत्साहित करके जाति का निर्माण करेंगे। इसके अतिरिक्त हम देखते हैं कि वास्तुकला कभी-कभी ज्ञात उपयोगिता संबंधी आवश्यकताओं और उसकी निर्माण पद्धतियों से आगे भी बढ़ जाती है। वास्तुकला में ही कल्पना की विशुद्ध सृष्टि, जब सारे दृष्टिकोण के व्यापक अवरोध के साथ व्यक्त होती हैं, तब पूर्णता के शिखर पर पहुँचने में समर्थ होती हैं, जैसे यूनान में जूस के सिर से एथीना की, या भारत में स्वयंभू की उपमा।

वास्तुकला का आधार

इसमें संदेह नहीं कि वास्तुकला का आधार इमारतें हैं, किंतु यह इमारतें खड़ी करने के अतिरिक्त कुछ और भी हैं, जैसे कविता गद्य रचना के अतिरिक्त कुछ और भी है। मीठे स्वर में गाए जाने पर कविता प्रभावशाली होती ही है, किंतु जब उसके साथ उपयुक्त संगीत और लययुक्त नृत्य चेष्टाएँ भी होती हैं, तब वह केवल मनुष्य के ह्रदय की और विभिन्न इंद्रियों को ही आकर्षित नहीं करती, अपितु इनके गौरवपूर्ण मेल से निर्मित सारे वातावरण से ही उसे अवगत कराती हैं। इसी प्रकार वास्तुकल्पनाएँ, दार्शनिक गतिविधियों से, काव्यमय अभिव्यक्तियों से, और सम्मिलित लयात्मक, संगीतात्मक तथा वर्णात्मक अर्थों से परिपूर्ण होती हैं, और ऐसी उत्कृष्ट वास्तुकृतियाँ मानव के अंतर्मानस को छूती हुईं सभी प्रकार से उसकी प्रशंसा का पात्र होती हैं, और फिर विश्वव्यापी ख्याति अर्जित करती हैं। सर्वसंमत महान वास्तुकृतियों की यह प्रशस्ति चिरस्थायी होती है, और भावी पीढ़ियों को प्रेरणा देती है।

आधुनिक स्वरूप

यह सत्य है कि वास्तुकला के प्रयोगों में बहुत अस्थिरता रही है, जिससे अगणित शैलियाँ प्रकट हो गई हैं। किंतु उन शैलियों से किसी वास्तुक को क्या प्रयोजन? या उनका उसके युग से क्या संबंध? सच तो यह है कि वास्तुकला न कोई पंथ है न शैली, वरन्‌ यह तो विकास का अटूट क्रम है। इसलिए वास्तुक को शैलियों से विशेष प्रयोजन नहीं, जैसे बदलते हुए फैशन से किसी महिला की पोशाक का कोई संबंध नहीं। इस विषय में फ्रैंकलायड राइट ने कहा है कि, 'वास्तुकला की परिधि इधर-उधर हटती रहती है, उसका केंद्र नहीं बदलता'। आधुनिक वास्तुकला का विकास विन्यास की संरचनात्मक आवश्यकताओं और उपलब्ध सामग्री की सौंदर्य संभावनाओं द्वारा प्रस्तुत प्रतिबंधों की उपस्थिति में सुंदरता के लिए खोज और संघर्ष के फलस्वरूप हुआ है। जब इनके फलस्वरूप किसी रचना की सृष्टि होती है, तब ऐसा लगता है कि आज की वास्तुकला भारी रचनाओं और आवृत्तियों के रूप में व्यक्त मूर्तिकला ही है। यदि इस संदर्भ में देखे तो वास्तुकला व्यक्ति के अपने सर्जक मन की संपूर्ण एवं सुविकसित रचना होनी चाहिए, जो स्वयंभू के उच्च स्तर तक पहुँचती है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

वास्तुकला (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 18 अगस्त, 2011।