बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-1 ब्राह्मण-4: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
('*बृहदारण्यकोपनिषद के [[बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-1|अ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
Line 22: | Line 22: | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
[[Category:बृहदारण्यकोपनिषद]] | |||
[[Category:दर्शन कोश]] | [[Category:दर्शन कोश]] | ||
[[Category:उपनिषद]] | [[Category:उपनिषद]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
Revision as of 07:41, 5 September 2011
- बृहदारण्यकोपनिषद के अध्याय प्रथम का यह चौथा ब्राह्मण है।
- यहाँ 'ब्रह्म' की एकांगीता पर प्रकाश डाला गया है।
- ब्रह्म के सिवा सृष्टि में कोई दूसरा नहीं है। उसके लिए यही कहा जा सकता है- 'अहस्मि, 'अर्थात मैं हूं। इसीलिए ब्रह्म को अहम संज्ञक कहा जाता है।
- एकाकी होने के कारण वह रमा नहीं। तब उसने किसी अन्य की आकांक्षा की। तब उसने अपने को नारी के रूप में विभक्त कर दिया।
- 'अर्द्धनारीश्वर' की कल्पना इसीलिए की गयी है।
- पुरुष और स्त्री के मिलन से मानव-जीवन का विकास हुआ।
- प्रथम चरण में प्रकृति संकल्प करके सव्यं को जिस-जिस पशु-पक्षी आदि जीवों के रूप में ढालती गयी, उसका वैसा-वैसा रूप बनता गया और उसी के अनुसार उनके युग्म बने और मैथुनी सृष्टि से जीवन के विविध रूपों का जन्म हुआ।
- सबसे पहले ब्रह्म 'ब्राह्मण' वर्ण में था।
- पुन: उसने अपनी रक्षा के लिए क्षत्रिय वर्ण का सृजन किया। फिर उसने वैश्य वर्ण का सृजन किया और अन्त में शूद्र वर्ण का सृजन किया और उन्हीं की प्रवृत्तियों के अनुसार उनके कार्यों का विभाजन किया।
- कर्म का विस्तार होने के उपरान्त 'धर्म' की उत्पत्ति की।
- धर्म से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है।
- धर्म की सत्या है। इसी ने 'आत्मा' से परिचय करायां यह 'आत्मा' ही समस्त जीवों को आश्रय प्रदाता है।
- यज्ञ द्वारा इसी 'आत्माय को प्रसन्न करने से देवलोक की प्राप्ति होती है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख