कैटभ: Difference between revisions

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[[मधु]] और कैटभ नामक दो असुरों की उत्पत्ति [[विष्णु]] के कानों की मैल से हुई थीं। [[ब्रह्मा]] ने पहले मिट्टी से उन दोनों के आकार-प्रकार का निर्माण किया था, फिर ब्रह्मा की प्रेरणा से [[वायु देव|वायु]] ने उनकी आकृति में प्रवेश किया। ब्रह्मा ने उन पर हाथ फेरा तो एक कोमल था, उसका नाम मधु रखा तथा दूसरा कठोर था, अत: उसका नाम कैटभ रखा। वे दोनों जल-प्रलय के समय पानी में विचरते रहते थे। उन्हें युद्ध करने की आकांक्षा रहती थी। एक बार वे द्युलोक में पहुंचे। विष्णु तथा उनकी नाभि से निकले कमल में ब्रह्मा सो रहे थे। उन दोनों असुरों ने अपने बल से उन्मत्त हो वहां विचरना प्रांरभ किया। विष्णु ने उन दोनों के बलिष्ठ रूप को देखकर उन्हें वर देने की इच्छा की पर अभिमानी मधु-कैटभ स्वयं विष्णु को वर देना चाहते थे। विष्णु ने उनसे वर मांगा कि वे दोनों विष्णु के हाथों मारे जायें, तदुपरांत उन्होंने विष्णु से वर मांगा कि उन दोनों का वध खुले आकाश में हो तथा वे दोनों विष्णु के पुत्र हों। विष्णु ने वर दे दिया तदुपरांत पद्मनाभ से उन दोनों का युद्ध हुआ। उन्होंने नारायण ने उन दोनों को अपनी जंघा पर मसलकर मान डाला। दोनों लाशें जल में मिलकर एक हो गयीं। उन दोनों दैत्यों के मेद से आच्छादित होकर वहां का जल अदृश्य हो गया, जिससे नाना प्रकार के जीवों का जन्म हुआ। वसुधा उन दोनों के मेद से आपूरित होने के कारण 'मेदिनी' कहलायी।
[[मधु]] और कैटभ नामक दो असुरों की उत्पत्ति [[विष्णु]] के कानों की मैल से हुई थीं। [[ब्रह्मा]] ने पहले मिट्टी से उन दोनों के आकार-प्रकार का निर्माण किया था, फिर ब्रह्मा की प्रेरणा से [[वायु देव|वायु]] ने उनकी आकृति में प्रवेश किया। ब्रह्मा ने उन पर हाथ फेरा तो एक कोमल था, उसका नाम मधु रखा तथा दूसरा कठोर था, अत: उसका नाम कैटभ रखा। वे दोनों जल-प्रलय के समय पानी में विचरते रहते थे। उन्हें युद्ध करने की आकांक्षा रहती थी। एक बार वे द्युलोक में पहुंचे। विष्णु तथा उनकी नाभि से निकले कमल में ब्रह्मा सो रहे थे। उन दोनों असुरों ने अपने बल से उन्मत्त हो वहां विचरना प्रांरभ किया। विष्णु ने उन दोनों के बलिष्ठ रूप को देखकर उन्हें वर देने की इच्छा की पर अभिमानी मधु-कैटभ स्वयं विष्णु को वर देना चाहते थे। विष्णु ने उनसे वर मांगा कि वे दोनों विष्णु के हाथों मारे जायें, तदुपरांत उन्होंने विष्णु से वर मांगा कि उन दोनों का वध खुले आकाश में हो तथा वे दोनों विष्णु के पुत्र हों। विष्णु ने वर दे दिया तदुपरांत पद्मनाभ से उन दोनों का युद्ध हुआ। उन्होंने नारायण ने उन दोनों को अपनी जंघा पर मसलकर मान डाला। दोनों लाशें जल में मिलकर एक हो गयीं। उन दोनों दैत्यों के मेद से आच्छादित होकर वहां का जल अदृश्य हो गया, जिससे नाना प्रकार के जीवों का जन्म हुआ। वसुधा उन दोनों के मेद से आपूरित होने के कारण 'मेदिनी' कहलायी।
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Revision as of 07:30, 16 May 2010

मधु और कैटभ नामक दो असुरों की उत्पत्ति विष्णु के कानों की मैल से हुई थीं। ब्रह्मा ने पहले मिट्टी से उन दोनों के आकार-प्रकार का निर्माण किया था, फिर ब्रह्मा की प्रेरणा से वायु ने उनकी आकृति में प्रवेश किया। ब्रह्मा ने उन पर हाथ फेरा तो एक कोमल था, उसका नाम मधु रखा तथा दूसरा कठोर था, अत: उसका नाम कैटभ रखा। वे दोनों जल-प्रलय के समय पानी में विचरते रहते थे। उन्हें युद्ध करने की आकांक्षा रहती थी। एक बार वे द्युलोक में पहुंचे। विष्णु तथा उनकी नाभि से निकले कमल में ब्रह्मा सो रहे थे। उन दोनों असुरों ने अपने बल से उन्मत्त हो वहां विचरना प्रांरभ किया। विष्णु ने उन दोनों के बलिष्ठ रूप को देखकर उन्हें वर देने की इच्छा की पर अभिमानी मधु-कैटभ स्वयं विष्णु को वर देना चाहते थे। विष्णु ने उनसे वर मांगा कि वे दोनों विष्णु के हाथों मारे जायें, तदुपरांत उन्होंने विष्णु से वर मांगा कि उन दोनों का वध खुले आकाश में हो तथा वे दोनों विष्णु के पुत्र हों। विष्णु ने वर दे दिया तदुपरांत पद्मनाभ से उन दोनों का युद्ध हुआ। उन्होंने नारायण ने उन दोनों को अपनी जंघा पर मसलकर मान डाला। दोनों लाशें जल में मिलकर एक हो गयीं। उन दोनों दैत्यों के मेद से आच्छादित होकर वहां का जल अदृश्य हो गया, जिससे नाना प्रकार के जीवों का जन्म हुआ। वसुधा उन दोनों के मेद से आपूरित होने के कारण 'मेदिनी' कहलायी। [1]

  • मार्कण्डेय पुराण की कथा में अंतर मात्र इतना है कि विष्णु ने अपनी जंघा पर मधु-कैटभ के सिर रखकर उन्हें चक्र से मार डाला। उन दोनों को ब्रह्मा की प्रेरणा से योग निद्रारूपी महामाया ने मोहित कर लिया था। महामाया ने ही विष्णु को जगाया तथा उन्हें इतनी शक्ति प्रदान की कि वे उन दोनों को मार पाए।[2]


टीका टिप्पणी

  1. महाभारत, वनपर्व, अध्याय 203, श्लोक 10 से 35 तक
    महाभारत, सभापर्व अध्याय 38।–
    महाभारत, भीष्मपर्व, अध्याय 67, श्लोक 14-15
    हरि वंश पुराण भविष्यपर्व 13।25,26
  2. मार्कंडेय पुराण, 78।-