नागार्जुन बौद्धाचार्य: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
'''आचार्य नागार्जुन | '''आचार्य नागार्जुन बौद्धाचार्य'''<br /> | ||
*[[हुएन-सांग|ह्रेनसांग]] के अनुसार [[अश्वघोष]], नागार्जुन, [[आर्यदेव बौद्धाचार्य|आर्यदेव]] और कुमारलब्ध (कुमारलात) समकालीन थे। | *[[हुएन-सांग|ह्रेनसांग]] के अनुसार [[अश्वघोष]], नागार्जुन, [[आर्यदेव बौद्धाचार्य|आर्यदेव]] और कुमारलब्ध (कुमारलात) समकालीन थे। |
Revision as of 10:08, 16 May 2010
आचार्य नागार्जुन बौद्धाचार्य
- ह्रेनसांग के अनुसार अश्वघोष, नागार्जुन, आर्यदेव और कुमारलब्ध (कुमारलात) समकालीन थे।
- राजतंरगिणी और तारानाथ के मतानुसार नागार्जुन कनिष्क के काल में पैदा हुए थे। नागार्जुन के काल के बारे में इतने मत-मतान्तर हैं कि कोई निश्चित समय सिद्ध कर पाना अत्यन्त कठिन है, फिर भी ई.पू. प्रथम शताब्दी से ईस्वीय प्रथम-द्वितीय शताब्दी के बीच कहीं उनका समय होना चाहिए। कुमारजीव ने 405 ई. के लगभग चीनी भाषा में नागार्जुन की जीवनी का अनुवाद किया था। ये दक्षिण भारत के विदर्भ प्रदेश में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। वे ज्योतिष, आयुर्वेद, दर्शन एवं तन्त्र आदि विद्याओं में अत्यन्त निपुण थे और प्रसिद्ध सिद्ध तान्त्रिक थे।
- प्रज्ञापारमितासूत्रों के आधार पर उन्होंने माध्यमिक दर्शन का प्रवर्तन किया था। कहा जाता है कि उनके काल में प्रज्ञापारमितासूत्र जम्बूद्वीप में अनुपलब्ध थे। उन्होंने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त किया तथा उन सूत्रों के दर्शन पक्ष को माध्यमिक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।
- अस्तित्व का विश्लेषण दर्शनों का प्रमुख विषय रहा है। भारतवर्ष में इसी के विश्लेषण में दर्शनों का अभूतपूर्व विकास हुआ है। उपनिषद-धारा में आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त तथा बौद्ध-धारा में आचार्य नागार्जुन का शून्याद्वयवाद शिखरायमाण है। परस्पर के वाद-विवाद ने इन दोनों धाराओं के दर्शनों को उत्कर्ष की पराकाष्ठा तक पहुंचाया है। यद्यपि आचार्य शंकर का काल नागार्जुन से बहुत बाद का है, फिर भी नागार्जुन के समय औपनिषदिक धारा के अस्तित्व का अपलाप नहीं किया जा सकता, किन्तु उसकी व्याख्या आचार्य शंकर की व्याख्या से निश्चित ही भिन्न रही होगी। आचार्य नागार्जुन के आविर्भाव के बाद भारतीय दार्शनिक चिन्तन में नया मोड़ आया। उसमें नई गति एवं प्रखरता का प्रादुर्भाव हुआ। वस्तुत: नागार्जुन के बाद ही भारतवर्ष में यथार्थ दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ हुआ। नागार्जुन ने जो मत स्थापित किया, उसका प्राय: सभी बौद्ध-बौद्धेतर दर्शनों पर व्यापक प्रभाव पड़ा और उसी के खण्डन-मण्डन में अन्य दर्शनों ने अपने को चरितार्थ किया।
- नागार्जुन के मतानुसार वस्तु की परमार्थत: सत्ता का एक 'शाश्वत अन्त' है तथा व्यवहारत: असत्ता दूसरा 'उच्छेद अन्त' है। इन दोनों अन्तों का परिहास कर वे अपना अनूठा मध्यम मार्ग प्रकाशित करते हैं। उनके अनुसार परमार्थत: 'भाव' नहीं है तथा व्यवहारत: या संवृत्तित: 'अभाव' भी नहीं है। यही नागार्जुन का मध्यम मार्ग या माध्यमिक दर्शन है। इस मध्यम मार्ग की व्यवस्था उन्होंने अन्य बौद्धों की भाँति प्रतीत्यसमुत्पाद की अपनी विशिष्ट व्याख्या के आधार पर की है। वे 'प्रतीत्य' शब्द द्वारा शाश्वत अन्त का तथा 'समुत्पाद' शब्द द्वारा उच्छेद अन्त का परिहास करते हैं और शून्यतादर्शन की स्थापना करते हैं।
- नागार्जुन के नाम पर अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें
- मूलमाध्यमिककारिका,
- विग्रहव्यावर्तनी,
- युक्तिषष्टिका,
- शून्यतासप्तति,
- रत्नावली और
- वैदल्यसूत्र प्रमुख हैं।
- इनमें मूलमाध्यमिककारिका शरीर स्थानीय है तथा अन्य ग्रन्थ उसी के अवयव या पूरक के रूप में माने जाते हैं। कहा जाता है कि उन्होंने मूलामाध्यमिककारिका पर 'अकुतोभया' नाम की वृत्ति लिखी थी, किन्तु अन्य साक्ष्यों के प्रकाश में आने पर अब यह मत विद्वानों में मान्य नहीं है। इसके अतिरिक्त सुहृल्लेख एवं सूत्रसमुच्चय आदि भी उनकी कृतियाँ हैं।
- भारतीय बौद्ध आचार्यों का कृतियों का तिब्बत के 'तन-ग्युर' नामक संग्रह में संकलन किया गया है।