भरहुत मूर्तिकला: Difference between revisions

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कभी-कभी प्राचीन प्रतीत होने वाली भरहुत शैली बौद्ध वर्णनात्मक उभरे शिल्प और धार्मिक भवनों की सजावत की परंपरा के प्रारंभ को चिह्नित करती है, जो कई शताब्दियों तक सतत रही। भरहुत अवशेषों से लगभग मिलते-जुलते शिल्प सारे [[उत्तर भारत]] में मिलते हैं, जो संकेत देते हैं कि भरहुत किसी समय की व्यापक शैली का एकमात्र उत्तरजीवी स्थल है।
कभी-कभी प्राचीन प्रतीत होने वाली भरहुत शैली बौद्ध वर्णनात्मक उभरे शिल्प और धार्मिक भवनों की सजावत की परंपरा के प्रारंभ को चिह्नित करती है, जो कई शताब्दियों तक सतत रही। भरहुत अवशेषों से लगभग मिलते-जुलते शिल्प सारे [[उत्तर भारत]] में मिलते हैं, जो संकेत देते हैं कि भरहुत किसी समय की व्यापक शैली का एकमात्र उत्तरजीवी स्थल है।
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thumb|भरहुत मूर्तिकला भरहुत मूर्तिकला शुंग काल (ई.पू. मध्य दूसरी शताब्दी) की प्राचीन भारतीय मूर्तिकला है, जिसने मध्य प्रदेश राज्य में भरहुत के विशाल स्तूप को अलंकृत किया। स्तूप अब मुख्यतः नष्ट हो चुका है और अधिकांश मौजूदा अवशेष, जैसे रेलिंग और प्रवेशद्वार, अब कोलकाता के भारतीय संग्रहालय में हैं।

कभी-कभी प्राचीन प्रतीत होने वाली भरहुत शैली बौद्ध वर्णनात्मक उभरे शिल्प और धार्मिक भवनों की सजावत की परंपरा के प्रारंभ को चिह्नित करती है, जो कई शताब्दियों तक सतत रही। भरहुत अवशेषों से लगभग मिलते-जुलते शिल्प सारे उत्तर भारत में मिलते हैं, जो संकेत देते हैं कि भरहुत किसी समय की व्यापक शैली का एकमात्र उत्तरजीवी स्थल है।

अलंकरण का विस्तृत वर्णन और तनी हुई मुद्रा वाली प्रतिमाएँ संकेत करती हैं कि यह शैली लकड़ी से आरंभ हुई और बाद में पत्थर पर जारी रही। स्तंभों में से कुछ पर यक्ष और यक्षिणी (प्रकृति के नर और नारी देवता) की उभरी हुई खड़ी आकृतियाँ है; वृक्ष का आलिंगन किए हुई महिला का बिंब बहुतायत से मिलता है।

पत्थर की बाड़ गोलाकार फलकों और पद्मभूषणों से अलंकृत है, जिनमें से कुछ के केंद्र में एक नर या नारी का मस्तक है। स्तूप और बाड़ों पर जातक कथाएँ (बुद्ध के पूर्व जन्मों की किंवदंतियाँ) और बुद्ध के जीवन की घटनाएँ भी चित्रित हैं। चूंकि ये नामांकित हैं, बौद्ध प्रतिमा विज्ञान को समझने के लिए भरहुत मूर्तिकला अनिवार्य है। पहली शताब्दी ई.पू. के पहले के सभी आरंभिक भारतीय शिल्पों की तरह बुद्ध को एक चक्र, रिक्त सिंहासन या छतरी जैसे चिह्नों द्वारा प्रस्तुत किया गया है, मानव रूप में कभी नहीं। भिन्न स्थितियों में भेद करने के प्रयत्न में उपयोग की गई परस्पर व्याप्त आकृतियों के साथ संयोजन सरल, सहज भी है। शिल्पों में दृष्टिगोचर होने वाले प्राणियों को भारतीय कला के सभी युगों के मर्मस्पर्शी, अर्थपूर्ण विशिष्ट गुणों के साथ दर्शाया गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख