ओढ़नी: Difference between revisions
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इकरंगी रंगाई तो साधारण बात थी, लोग घर में भी रंगते थे पर [[राजस्थान]] और कहें तो सारे [[भारत]] में प्राचीनकाल से ही [[बांधनी कला|बन्धेज]] का प्रचलन था। सातवीं शताब्दी में हर्ष का दरबारी [[कवि]] [[बाणभट्ट|बाण 'भट्ट']] वस्त्रों का वर्णन करता है तो सोलहवीं शताब्दी में [[मलिक मुहम्मद जायसी]] 'समुन्द्र लहर' और 'लहर पटोर' का। इसी प्रकार गुजराती वर्णन (17वीं) प्रतापसाही लहरिया की प्रशंसा करते नहीं थकते तो सभा | इकरंगी रंगाई तो साधारण बात थी, लोग घर में भी रंगते थे पर [[राजस्थान]] और कहें तो सारे [[भारत]] में प्राचीनकाल से ही [[बांधनी कला|बन्धेज]] का प्रचलन था। सातवीं शताब्दी में हर्ष का दरबारी [[कवि]] [[बाणभट्ट|बाण 'भट्ट']] वस्त्रों का वर्णन करता है तो सोलहवीं शताब्दी में [[मलिक मुहम्मद जायसी]] 'समुन्द्र लहर' और 'लहर पटोर' का। इसी प्रकार गुजराती वर्णन (17वीं) प्रतापसाही लहरिया की प्रशंसा करते नहीं थकते तो सभा शृंगार के संकलनकर्ता चुनरी का। अठारहवीं शताब्दी तक आते-आते [[जयपुर]] के बज़ारों में पोमचा, लहरिया और चुनरी भाँत के वस्त्र बाँधे, रंगे व बेचे जा रहे है। | ||
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Revision as of 13:19, 25 June 2013
ओढ़नी स्त्रियाँ घाघरा और कुर्ती के ऊपर ओढ़ती है। ओढ़नी की लम्बाई प्रायः ढाई से तीन मीटर और चौड़ाई डेढ़ से पौने दो मीटर होती है, जिससे कि घूंघट निकालने पर भी ओढनी नीचे घाघरे तक रहती है। ओढ़नियाँ विविध रंगों में रंगी जातीं है और इन पर कीमती बेलें या गोटा पत्ती लगाई जाती हैं।
इकरंगी रंगाई तो साधारण बात थी, लोग घर में भी रंगते थे पर राजस्थान और कहें तो सारे भारत में प्राचीनकाल से ही बन्धेज का प्रचलन था। सातवीं शताब्दी में हर्ष का दरबारी कवि बाण 'भट्ट' वस्त्रों का वर्णन करता है तो सोलहवीं शताब्दी में मलिक मुहम्मद जायसी 'समुन्द्र लहर' और 'लहर पटोर' का। इसी प्रकार गुजराती वर्णन (17वीं) प्रतापसाही लहरिया की प्रशंसा करते नहीं थकते तो सभा शृंगार के संकलनकर्ता चुनरी का। अठारहवीं शताब्दी तक आते-आते जयपुर के बज़ारों में पोमचा, लहरिया और चुनरी भाँत के वस्त्र बाँधे, रंगे व बेचे जा रहे है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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