तैत्तिरीयोपनिषद ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक-8: Difference between revisions

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*इस अनुवाक में 'आनन्द' की विस्तृत व्याख्या की गयी है। कामनाओं से युक्त आनन्द की प्राप्ति, वास्तविक आनन्द नहीं है।  
*इस अनुवाक में 'आनन्द' की विस्तृत व्याख्या की गयी है। कामनाओं से युक्त आनन्द की प्राप्ति, वास्तविक आनन्द नहीं है।  
*केवल लौकिक आनन्द की प्राप्ति कर लेना ही आनन्द नहीं है, उसके लिए समग्र व्यक्तित्व का श्रेष्ठ होना भी परम आवश्यक है।  
*केवल लौकिक आनन्द की प्राप्ति कर लेना ही आनन्द नहीं है, उसके लिए समग्र व्यक्तित्व का श्रेष्ठ होना भी परम आवश्यक है।  
*ऋषि कहता है कि यह चराचर जगत ब्रह्म के भय से ही क्रियारत है।  
*ऋषि कहता है कि यह चराचर जगत् ब्रह्म के भय से ही क्रियारत है।  
*वायु सूर्य, अग्नि, इन्द्र, मृत्युदेव यम, सभी उसके भय से कर्मों में प्रवृत्त हैं।  
*वायु सूर्य, अग्नि, इन्द्र, मृत्युदेव यम, सभी उसके भय से कर्मों में प्रवृत्त हैं।  
*इस पृथ्वी पर जो लौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वह एक साधारण आनन्द है।  
*इस पृथ्वी पर जो लौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वह एक साधारण आनन्द है।  

Latest revision as of 13:53, 30 June 2017

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य
  • इस अनुवाक में 'आनन्द' की विस्तृत व्याख्या की गयी है। कामनाओं से युक्त आनन्द की प्राप्ति, वास्तविक आनन्द नहीं है।
  • केवल लौकिक आनन्द की प्राप्ति कर लेना ही आनन्द नहीं है, उसके लिए समग्र व्यक्तित्व का श्रेष्ठ होना भी परम आवश्यक है।
  • ऋषि कहता है कि यह चराचर जगत् ब्रह्म के भय से ही क्रियारत है।
  • वायु सूर्य, अग्नि, इन्द्र, मृत्युदेव यम, सभी उसके भय से कर्मों में प्रवृत्त हैं।
  • इस पृथ्वी पर जो लौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वह एक साधारण आनन्द है।
  • मनुष्यलोक के ऐसे सौ आनन्द मानव-गन्धर्वलोक के एक आनन्द के बराबर हैं।
  • मानव-गन्धर्वलोक के सौ आनन्द, देव-गन्धर्वलोक के एक आनन्द के समान है।
  • देव-गन्धर्वलोक के सौ आनन्द पितृलोक के एक आनन्द के समान, पितृलोक के सौ आनन्द संज्ञक देवों के एक आनन्द के समान, संज्ञक देवों की सौ आनन्द कर्मक देव संज्ञक देवों के एक आनन्द के समान, कर्मक देव संज्ञक देवों के सौ आनन्द देवों के एक आनन्द के समान, देवों के सौ आनन्द इन्द्र के एक आनन्द के समान, इन्द्र के सौ आनन्द बृहस्पति के एक आनन्द के समान तथा देव प्रजापति बृहस्पति के सौ आनन्द ब्रह्म के एक आनन्द के बराबर हैं।
  • परन्तु जो कामनारहित साधक है, उसे ये आनन्द सहज रूप से ही प्राप्त हो जाते हैं।
  • जो 'ब्रह्म' इस मनुष्य के शरीर में विद्यमान है, वही 'सूर्य' में है।
  • जो साधक इस रहस्य को जान जाता है, वह अन्नमय आत्मा से विज्ञानमय आत्मा तक का मार्ग करके 'आनन्दमय आत्मा' को प्राप्त कर लेता है।


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