एक जिद्दी लड़की -विजय तेंदुलकर: Difference between revisions

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घरवालों का विरोध देखकर वह चुपचाप घर पर अपना अख्तियार छोड़ देता है और इस तरह घर की सत्ता पलट जाती है। बुराई की जगह अच्छाई की जीत होती है और घर की लगाम ससुर के हाथ से छीनकर बहू के हाथ में आ जाती है। आदर्श नाटकों में तो नाटक यहीं समाप्त हो जाता और सच्चाई की जीत दर्शाकर दर्शकों को भी खुश कर दिया जाता, लेकिन यह [[विजय तेंदुलकर]] का नाटक है, जो जीवन की विसंगतियों को सामने लाने के लिए जाने जाते हैं।
घरवालों का विरोध देखकर वह चुपचाप घर पर अपना अख्तियार छोड़ देता है और इस तरह घर की सत्ता पलट जाती है। बुराई की जगह अच्छाई की जीत होती है और घर की लगाम ससुर के हाथ से छीनकर बहू के हाथ में आ जाती है। आदर्श नाटकों में तो नाटक यहीं समाप्त हो जाता और सच्चाई की जीत दर्शाकर दर्शकों को भी खुश कर दिया जाता, लेकिन यह [[विजय तेंदुलकर]] का नाटक है, जो जीवन की विसंगतियों को सामने लाने के लिए जाने जाते हैं।


नाटक आगे बढ़ता है और इस परिवार का जीवन भी। बहू घर की कमान अपने हाथों में लेती है और ईमानदारी से जीवन जीने के उपक्रम में घर में अचार, पापड़ जैसे छोटे उपक्रमों का कारोबार खड़ा करती है। अफसोस की पूरे घरवालों की जी तोड़ मेहनत के बाद भी उनका यह उपक्रम आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रहा। कोई उसमें पूंजी लगाने को तैयार नहीं है। बहू मंगला इसके लिए दिनों भर हाथ-पैर मारती रहती है। एक साल बीतने को आए हैं। अब घरवाले भी अपना मंतव्य बदल चुके हैं। जीवन में इतनी मेहनत कर भी कुछ न पाने का गम उन पर भारी है और वह अब मंगला के प्रयोग को बंद करवाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि जीवन जैसे मंगला के आने के पहले चल रहा था वैसे ही चले तो बेहतर। उसमें पेट काटने की मजबूरी नहीं थी। यहाँ तो रोज की जरूरतों का भी संकट है। इस तरह अंत में मंगला की हार होती है। बाबूजी फिर विजेता होकर उभरते हैं।
नाटक आगे बढ़ता है और इस परिवार का जीवन भी। बहू घर की कमान अपने हाथों में लेती है और ईमानदारी से जीवन जीने के उपक्रम में घर में अचार, पापड़ जैसे छोटे उपक्रमों का कारोबार खड़ा करती है। अफसोस की पूरे घरवालों की जी तोड़ मेहनत के बाद भी उनका यह उपक्रम आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रहा। कोई उसमें पूंजी लगाने को तैयार नहीं है। बहू मंगला इसके लिए दिनों भर हाथ-पैर मारती रहती है। एक साल बीतने को आए हैं। अब घरवाले भी अपना मंतव्य बदल चुके हैं। जीवन में इतनी मेहनत कर भी कुछ न पाने का गम उन पर भारी है और वह अब मंगला के प्रयोग को बंद करवाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि जीवन जैसे मंगला के आने के पहले चल रहा था वैसे ही चले तो बेहतर। उसमें पेट काटने की मजबूरी नहीं थी। यहाँ तो रोज की ज़रूरतों का भी संकट है। इस तरह अंत में मंगला की हार होती है। बाबूजी फिर विजेता होकर उभरते हैं।


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Latest revision as of 10:46, 2 January 2018

एक जिद्दी लड़की -विजय तेंदुलकर
लेखक विजय तेंदुलकर
मूल शीर्षक एक जिद्दी लड़की
मुख्य पात्र मंगला, बाबूजी, दिनकर
अनुवादक पद्मजी घोरपड़े
प्रकाशक वाणी प्रकाशन
ISBN 978-93-5000-182-0Price : `195(HB)
देश भारत
पृष्ठ: 104
भाषा हिन्दी
विधा नाटक


एक जिद्दी लड़की प्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर की रचना है। विजय तेंदुलकर सामान्य जीवन की परिस्थितियों से अपनी विषयवस्तु उठाते हैं और कॉमिक हास्य पैदा करते हुए एक विराट शोकपूर्ण घटना की सृष्टि कर डालते हैं। ‘एक जिद्दी लड़की’ उनकी इस नाटकीय प्रतिभा की एक बहुत ही दिलचस्प अभिव्यक्ति है।

इस नाटक की कहानी में विस्तार से अधिक गहराई है। एक व्यक्ति लोगों को ठग कर अपने परिवार का पालन-पोषण करता है और परिवार के भीतर वैसा ही अनुशासन बनाये रखता है। बच्चों में विद्रोह की भावना पैदा होती है, लेकिन वे पिता की सत्ता से व्यंग्यात्मक सामंजस्य बनाये रखने के अलावा कुछ कर नहीं पाते। इसी पृष्ठभूमि में बडे़ लड़के का विवाह होता है और घर में दाखिल होती है एक जिद्दी लड़की, जो पहले ही दिन से सब कुछ बदल डालने के लिए कृतसंकल्प है। परिणामस्वरूप अनेक विडम्बनामूलक स्थितियों का जन्म होता है। हैरत की बात यह है कि छल-कपट की जिन्दगी जीने वाला पिता भी अन्त में उसके साथ सहयोग करने के लिए तैयार हो जाता है। पूरा घर एक कुटीर उद्योग में बदल जाता है, लेकिन नतीजे में हाथ आती है फिर से भी बड़ी निराशा। अच्छाई एक बार फिर हारती है और बुराई को फिर सिर उठाने का मौका मिल जाता है।

नाटक का सार

विजय तेंदुलकर लिखित नाटक 'एक जिद्दी लड़की' जीवन की उस सबसे बड़ी सच्चाई को हमारे सामने लाता है कि जीवन आदर्श से नहीं चलता। आदर्श, नैतिकता, सत्य और ईमान बस खोखले शब्द हैं, जो दो वक्त की रोटी नहीं दे सकते। नाटक 'एक जिद्दी लड़की' से गुजरते हुए सबसे ज्यादा एहसास इसी बात का होता है कि आदर्श, नैतिकता, सत्य और ईमान जैसे शब्दों का मतलब तभी है, जब आपके पास जीवन जीने के सारे साधन मौजूद हों। शायद इन्हीं स्थितियों के लिए कहा गया होगा कि "भूखे भजन न होई गोपाला"।

नाटक की मुख्य पात्र 'मंगला' ब्याह कर एक ऐसे घर में आती है, जिसका पालनकर्ता 'बाबूजी' (उसका ससुर) झूठ-सच बोलकर और लोगों को ठगकर ही परिवार का पेट पालता आया है। उसे अपने इस काम पर कोई शर्म या हिचक नहीं है। वह अपने व्यवहार को उचित मानता है और परिवार के लोगों को भी अपने प्रपंच में शामिल करता आया है। उसके बच्चे और पत्नी तक उसकी कारगुजारियों से तंग आ चुके हैं। मंगला के आने के बाद घर का व्यवहार बदलने लगता है। मंगला अपने ससुर के धंधों का विरोध करती है। उसका पति 'दिनकर' और परिवार के दूसरे सदस्य भी उसका साथ देते हैं। ससुर दुनियादार है। वह घर वालों को नाराज नहीं करना चाहता। उसने घाट-घाट का पानी पिया है और लोगों को वह उनके नंगे रूप में देखने का आदी रहा है। उसे पता है कि कोई यूँ ही नहीं ठगा जाता। वह जानता है कि ठगे वही लोग जाते हैं जो लोभ में आते हैं।

घरवालों का विरोध देखकर वह चुपचाप घर पर अपना अख्तियार छोड़ देता है और इस तरह घर की सत्ता पलट जाती है। बुराई की जगह अच्छाई की जीत होती है और घर की लगाम ससुर के हाथ से छीनकर बहू के हाथ में आ जाती है। आदर्श नाटकों में तो नाटक यहीं समाप्त हो जाता और सच्चाई की जीत दर्शाकर दर्शकों को भी खुश कर दिया जाता, लेकिन यह विजय तेंदुलकर का नाटक है, जो जीवन की विसंगतियों को सामने लाने के लिए जाने जाते हैं।

नाटक आगे बढ़ता है और इस परिवार का जीवन भी। बहू घर की कमान अपने हाथों में लेती है और ईमानदारी से जीवन जीने के उपक्रम में घर में अचार, पापड़ जैसे छोटे उपक्रमों का कारोबार खड़ा करती है। अफसोस की पूरे घरवालों की जी तोड़ मेहनत के बाद भी उनका यह उपक्रम आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रहा। कोई उसमें पूंजी लगाने को तैयार नहीं है। बहू मंगला इसके लिए दिनों भर हाथ-पैर मारती रहती है। एक साल बीतने को आए हैं। अब घरवाले भी अपना मंतव्य बदल चुके हैं। जीवन में इतनी मेहनत कर भी कुछ न पाने का गम उन पर भारी है और वह अब मंगला के प्रयोग को बंद करवाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि जीवन जैसे मंगला के आने के पहले चल रहा था वैसे ही चले तो बेहतर। उसमें पेट काटने की मजबूरी नहीं थी। यहाँ तो रोज की ज़रूरतों का भी संकट है। इस तरह अंत में मंगला की हार होती है। बाबूजी फिर विजेता होकर उभरते हैं।


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