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वैदिक साहित्य की बहुत सी उक्तियों में पितर शब्द व्यक्ति के समीपवर्ती, मृत पुरुष पूर्वजों के लिए प्रयुक्त हुआ है। अत: तीन पीढ़ियों तक वे (पूर्वजों को) नाम से विशिष्ट रूप से व्यंजित करते हैं, क्योंकि ऐसे बहुत से पितर हैं, जिन्हें आहुति दी जाती है।'<ref>(तैत्तिरीय ब्राह्मण 1|6|9|5)</ref> शतपथ ब्राह्मण<ref>शतपथब्राह्मण (2|4|2|19)</ref> ने पिता, पितामह एवं प्रपितामह को पुरोडाश (रोटी) देते समय के सूक्तों का उल्लेख किया है और कहा है कि कर्ता इन शब्दों को कहता है–"हे पितर लोग, यहाँ आकर आनन्द लो, बैलों के समान अपने-अपने भाग पर स्वयं आओ'।<ref>(वाज. सं. 2|31, प्रथम पाद)</ref> कुछ<ref>(तैत्तिरीय संहिता 1|8|5|1)</ref> ने यह सूक्त दिया है–"यह (भात का पिण्ड) तुम्हारे लिये और उनके लिये है जो तुम्हारे पीछे आते हैं।" किन्तु शतपथब्राह्मण ने दृढ़तापूर्वक कहा है कि यह सूक्त नहीं करना चाहिए, प्रत्युत यह विधि अपनानी चाहिए–"यहाँ यह तुम्हारे लिये है।" शतपथब्राह्मण<ref>शतपथब्राह्मण (12|8|1|7)</ref> में तीन पूर्व पुरुषों को स्वधाप्रेमी कहा गया है। इन वैदिक उक्तियों एवं मनु<ref>मनु (3|221)</ref> तथा [[विष्णु पुराण]]<ref>[[विष्णु पुराण]] (21|3 एवं 75|4)</ref> की इस व्यवस्था पर कि नाम एवं गोत्र बोलकर ही पितरों का आहावान करना चाहिए, निर्भर रहते हुए श्राद्धप्रकाश<ref>(पृ. 12)</ref> ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पिता एवं अन्य पूर्वजों को ही श्राद्ध का देवता कहा जाता है, न कि वसु, रुद्र एवं आदित्य को, क्योंकि इनके गोत्र नहीं होते और पिता आदि वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में कवल ध्यान के लिए वर्णित हैं। श्राद्धप्रकाश<ref>श्राद्धप्रकाश (पृ. 204)</ref> [[ब्रह्म पुराण]] ने इस कथन, जो यह व्यवस्था देता है कि कर्ता को ब्राह्मणों से यह कहना चाहिए की मैं कृत्यों के लिए पितरों को बुलाऊँगा और जब ब्राह्मण ऐसी अनुमति दे देते हैं, तो उसे वैसा करना चाहिए, (अर्थात् पितरों का आहावान करना चाहिए), यह निर्देश देता है कि यहाँ पर पितरों का तात्पर्य है देवों से, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों से तथा मानवों से, यथा–कर्ता के पिता एवं अन्यों से। वायु पुराण<ref>वायु पुराण (56|65-66)</ref>, ब्रह्माण्ड पुराण एवं अनुशासन पर्व ने उपर्युक्त पितरों एवं लौकिक पितरों (पिता, पितामह एवं प्रपितामह) में अन्दर दर्शाया हैं।<ref>देखिए वायु. (70|34), यहाँ पितर लोग देवता कहे गये हैं।</ref>

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R1
पूरा नाम लालबहादुर शास्त्री
अन्य नाम शास्त्री जी
जन्म 2 अक्टूबर 1904
जन्म भूमि मुगलसराय, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 11 जनवरी, 1966
मृत्यु स्थान ताशकंद, उज़बेकिस्तान
पति/पत्नी ललितादेवी
पार्टी काँग्रेस
पद भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री
कार्य काल 9 जून, 1964 से 11 जनवरी, 1966
शिक्षा स्नातकोत्तर
विद्यालय राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय काशी विद्यापीठ
पुरस्कार-उपाधि भारत रत्न सम्मान

वैदिक साहित्य की बहुत सी उक्तियों में पितर शब्द व्यक्ति के समीपवर्ती, मृत पुरुष पूर्वजों के लिए प्रयुक्त हुआ है। अत: तीन पीढ़ियों तक वे (पूर्वजों को) नाम से विशिष्ट रूप से व्यंजित करते हैं, क्योंकि ऐसे बहुत से पितर हैं, जिन्हें आहुति दी जाती है।'[1] शतपथ ब्राह्मण[2] ने पिता, पितामह एवं प्रपितामह को पुरोडाश (रोटी) देते समय के सूक्तों का उल्लेख किया है और कहा है कि कर्ता इन शब्दों को कहता है–"हे पितर लोग, यहाँ आकर आनन्द लो, बैलों के समान अपने-अपने भाग पर स्वयं आओ'।[3] कुछ[4] ने यह सूक्त दिया है–"यह (भात का पिण्ड) तुम्हारे लिये और उनके लिये है जो तुम्हारे पीछे आते हैं।" किन्तु शतपथब्राह्मण ने दृढ़तापूर्वक कहा है कि यह सूक्त नहीं करना चाहिए, प्रत्युत यह विधि अपनानी चाहिए–"यहाँ यह तुम्हारे लिये है।" शतपथब्राह्मण[5] में तीन पूर्व पुरुषों को स्वधाप्रेमी कहा गया है। इन वैदिक उक्तियों एवं मनु[6] तथा विष्णु पुराण[7] की इस व्यवस्था पर कि नाम एवं गोत्र बोलकर ही पितरों का आहावान करना चाहिए, निर्भर रहते हुए श्राद्धप्रकाश[8] ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पिता एवं अन्य पूर्वजों को ही श्राद्ध का देवता कहा जाता है, न कि वसु, रुद्र एवं आदित्य को, क्योंकि इनके गोत्र नहीं होते और पिता आदि वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में कवल ध्यान के लिए वर्णित हैं। श्राद्धप्रकाश[9] ब्रह्म पुराण ने इस कथन, जो यह व्यवस्था देता है कि कर्ता को ब्राह्मणों से यह कहना चाहिए की मैं कृत्यों के लिए पितरों को बुलाऊँगा और जब ब्राह्मण ऐसी अनुमति दे देते हैं, तो उसे वैसा करना चाहिए, (अर्थात् पितरों का आहावान करना चाहिए), यह निर्देश देता है कि यहाँ पर पितरों का तात्पर्य है देवों से, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों से तथा मानवों से, यथा–कर्ता के पिता एवं अन्यों से। वायु पुराण[10], ब्रह्माण्ड पुराण एवं अनुशासन पर्व ने उपर्युक्त पितरों एवं लौकिक पितरों (पिता, पितामह एवं प्रपितामह) में अन्दर दर्शाया हैं।[11]

  1. (तैत्तिरीय ब्राह्मण 1|6|9|5)
  2. शतपथब्राह्मण (2|4|2|19)
  3. (वाज. सं. 2|31, प्रथम पाद)
  4. (तैत्तिरीय संहिता 1|8|5|1)
  5. शतपथब्राह्मण (12|8|1|7)
  6. मनु (3|221)
  7. विष्णु पुराण (21|3 एवं 75|4)
  8. (पृ. 12)
  9. श्राद्धप्रकाश (पृ. 204)
  10. वायु पुराण (56|65-66)
  11. देखिए वायु. (70|34), यहाँ पितर लोग देवता कहे गये हैं।