रज़िया सुल्तान: Difference between revisions
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:अपने अंतिम दिनों में [[इल्तुतमिश]] अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। वह अपने किसी भी लड़के को सुल्तान बनने योग्य नहीं समझता था। बहुत सोचने विचारने के बाद अन्त में उसने अपनी पुत्री | :अपने अंतिम दिनों में [[इल्तुतमिश]] अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। वह अपने किसी भी लड़के को सुल्तान बनने योग्य नहीं समझता था। बहुत सोचने विचारने के बाद अन्त में उसने अपनी पुत्री रज़िया को अपना सिंहासन सौंपने का निश्चय किया तथा अपने सरदारों और उल्माओं को इस बात के लिए राज़ी किया। यद्यपि स्त्रियों ने प्राचीन [[मिस्र]] और [[ईरान]] में रानियों के रूप में शासन किया था और इसके अलावा शासक राजकुमारों के छोटे होने के कारण राज्य का कारोबार सम्भाला था, तथापि इस प्रकार पुत्रों के होते हुए सिंहासन के लिए स्त्री को चुनना एक नया क़दम था। | ||
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:रज़िया ने स्त्रियों का पहनावा छोड़ दिया और बिना पर्दे के दरबार में बैठने लगी। वह शिकार पर भी जाती और युद्ध के समय सेना का नेतृत्व भी करती। वह अपना एक अलग दल तैयार करना चाहती थी। इसे तुर्क सरदार सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने रज़िया पर स्त्री-आचरण को तोड़ने और एक अबीसिनीयाई सरदार | :रज़िया ने स्त्रियों का पहनावा छोड़ दिया और बिना पर्दे के दरबार में बैठने लगी। वह शिकार पर भी जाती और युद्ध के समय सेना का नेतृत्व भी करती। वह अपना एक अलग दल तैयार करना चाहती थी। इसे [[तुर्क]] सरदार सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने रज़िया पर स्त्री-आचरण को तोड़ने और एक अबीसिनीयाई सरदार [[याक़ूत]] ख़ाँ से प्रेम करने का आरोप लगाया। | ||
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:प्रान्तों में कई शक्तिशाली सरदारों ने भी रज़िया के विरुद्ध मोर्चा बनाया। यद्यपि रज़िया बड़ी वीरता के साथ लड़ी, पर अन्त में वह पराजित हुई और भागने के दौरान एक जंगल में सोते समय डाकुओं के हाथों मारी गई। | :प्रान्तों में कई शक्तिशाली सरदारों ने भी रज़िया के विरुद्ध मोर्चा बनाया। यद्यपि रज़िया बड़ी वीरता के साथ लड़ी, पर अन्त में वह पराजित हुई और भागने के दौरान एक जंगल में सोते समय डाकुओं के हाथों मारी गई। | ||
Revision as of 07:21, 3 December 2010
- रज़िया अल्-दीन (1205– अक्टूबर 14/15, 1240), सुल्तान जलालत उद-दीन रज़िया
- अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। वह अपने किसी भी लड़के को सुल्तान बनने योग्य नहीं समझता था। बहुत सोचने विचारने के बाद अन्त में उसने अपनी पुत्री रज़िया को अपना सिंहासन सौंपने का निश्चय किया तथा अपने सरदारों और उल्माओं को इस बात के लिए राज़ी किया। यद्यपि स्त्रियों ने प्राचीन मिस्र और ईरान में रानियों के रूप में शासन किया था और इसके अलावा शासक राजकुमारों के छोटे होने के कारण राज्य का कारोबार सम्भाला था, तथापि इस प्रकार पुत्रों के होते हुए सिंहासन के लिए स्त्री को चुनना एक नया क़दम था।
अमीरों से संघर्ष
- अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए रज़िया को न केवल अपने सगे भाइयों, बल्कि शक्तिशाली तुर्की सरदारों का भी मुक़ाबला करना पड़ा और वह केवल तीन वर्षों तक ही शासन कर सकी। यद्यपि उसके शासन की अवधि बहुत कम थी, तथापि उसके कई महत्वपूर्ण पहलू थे। रज़िया के शासन के साथ ही सम्राट और तुर्की सरदारों, जिन्हें चहलग़ानी (चालीस) कहा जाता है, के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया।
कठपुतली ना बनना
- अल्तमश अपने तुर्क सरदारों का बहुत आदर करता था। उसकी मृत्यु के बाद ये सरदार शक्ति और घमंण्ड में चूर होकर सिंहासन पर कठपुतली के रूप में ऐसे शासक को बैठाना चाहते थे जिस पर उनका पूरा नियंत्रण रहे। उन्हें शीघ्र ही पता लग गया कि स्त्री होने पर भी रज़िया उनके हाथों की कठपुतली बनने को तैयार नहीं थी।
बेपर्दा रज़िया
- रज़िया ने स्त्रियों का पहनावा छोड़ दिया और बिना पर्दे के दरबार में बैठने लगी। वह शिकार पर भी जाती और युद्ध के समय सेना का नेतृत्व भी करती। वह अपना एक अलग दल तैयार करना चाहती थी। इसे तुर्क सरदार सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने रज़िया पर स्त्री-आचरण को तोड़ने और एक अबीसिनीयाई सरदार याक़ूत ख़ाँ से प्रेम करने का आरोप लगाया।
विवाह
- रज़िया ने इख़्तियारुद्दीन अल्तूनिया नाम के एक तुर्की हाक़िम से विवाह किया था।
मृत्यु
- प्रान्तों में कई शक्तिशाली सरदारों ने भी रज़िया के विरुद्ध मोर्चा बनाया। यद्यपि रज़िया बड़ी वीरता के साथ लड़ी, पर अन्त में वह पराजित हुई और भागने के दौरान एक जंगल में सोते समय डाकुओं के हाथों मारी गई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ