बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-4 ब्राह्मण-3

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  • यहाँ राजा जनक और याज्ञवल्क्य ऋषि के मध्य 'आत्मा' के स्वरूप को लेकर चर्चा की गयी है।
  • राजा जनक ऋषि याज्ञवल्क्य से पूछते हैं कि यह पुरुष सभी कुछ प्रकाश के माध्यम से इस दृश्य जगत को देखता है और सोचता है कि यह ज्योति किसकी है?
  • यह कहां से आती है और कहां चली जाती है?'
  • इस पर याज्ञवल्क्य राजा जनक को बताते हैं कि यह ज्योति 'आदित्य', अर्थात सूर्य से ही आती है। उसी से यह मनुष्य इस दृश्य जगत को देख पाता है।
  • उसके अस्त होने पर 'चन्द्रमा' के प्रकाश से देखता है।
  • जब चन्द्रमा अस्त हो जाता है (कृष्ण पक्ष में), तो यह 'अग्नि' का सहारा लेता है।
  • जब अग्नि भी शान्त पड़ जाती है, तब यह वाणी का सहारा लेता है। लेकिन जब सूर्य, चन्द्र, अग्नि तथा वाणी, ये चारों भी न हों, तो वह 'योग-साधना' के द्वारा सबको देखता है और चैतन्य रहता हैं उस समय उसके पास आत्म-ज्योति होती है, जिससे वह देखता-सुनता है।
  • याज्ञवल्क्य उसे 'आत्मा' के विषय में बताते हुए कहते हैं कि मन और बुद्धि की वृत्तियों के अनुरूप शरीर के भीतर स्थित विज्ञानमय, आनन्दस्वरूप ज्योति, प्राणों के द्वारा घनीभूत होकर सूक्ष्म रूप में हृदय में स्थित हो जाती है। यही 'आत्मा' है।
  • यही शरीर की जीवनी-शक्ति है।
  • यह शरीर में रहते हुए भी उससे निर्लिप्त रहता है।
  • यह विचारों की सृजन करता है, इन्द्रियों की शक्ति बनता है।
  • गहन निद्रा के काल में यह शरीर में रहकर भी लोक-लोकान्तरों की यात्रा करता है।
  • उस समय 'आत्मा' स्वयं अपने मन से अपने लिए सूक्ष्म शरीर धारण् कर लेता है और भौतिक शरीर को स्वप्नों के संसार की सैर कराता है।
  • यह 'आत्मा' दुष्कर्मों की मार से शरीर छोड़ने में किंचित भी विलम्ब नहीं करता।
  • वह देह से पूर्णत: निर्लिप्त रहता है।


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