बाबू कुंवर सिंह

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बाबू कुंवर सिंह (जन्म- 1778 ई., बिहार; मृत्यु- 26 अप्रैल, 1858 ई.) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सैनिकों में से एक थे। इनके चरित्र की सबसे बड़ी ख़ासियत यही थी कि इन्हें वीरता से परिपूर्ण कार्यों को करना ही रास आता था। इतिहास प्रसिद्ध 1857 की क्रांति में भी इन्होंने सम्मिलित होकर अपनी शौर्यता का प्रदर्शन किया। बाबू कुंवर सिंह ने रीवा के ज़मींदारों को एकत्र किया और उन्हें अंग्रेज़ों से युद्ध के लिए तैयार किया। तात्या टोपे से भी इनका सम्पर्क था।

परिचय

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध नायक बाबू कुंवर सिंह के आरम्भिक जीवन के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। सम्भवत: उनका जन्म 1778 ई. में बिहार में हुआ था। उन्हें बचपन से ही शिक्षा से अधिक शौर्य-युक्त कार्यों में रुचि थी। बिहार के शाहाबाद में उनकी एक छोटी रियासत थी। उन पर जब कर्ज बढ़ गया तो अंग्रेज़ों ने रियासत का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया। उनका एजेंट लगान वसूल करता, सरकारी रकम चुकाता और रकम से किस्तों में रियासत का कर्ज उतारा जाता।

अंग्रेज़ों की चालाकी

इस अवस्था से बाबू कुंवर सिंह असंतुष्ट थे। इसी समय '1857 की क्रान्ति' आरम्भ हो गई और कुंवर सिंह को अपना विरोध प्रकट करने का अवसर मिल गया। 25 जुलाई, 1857 को जब क्रान्तिकारी दीनापुर से आरा की ओर बढ़े तो बाबू कुंवर सिंह उनमें सम्मिलित हो गए। उनके विचारों का अनुमान अंग्रेज़ों को पहले ही हो गया था। इसीलिए कमिश्नर ने उन्हें पटना बुलाया था कि उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाये। पर अंग्रेज़ों की चालाकी समझकर कुंवर सिंह बीमारी का बहाना बनाकर वहाँ नहीं गए।

शौर्य प्रदर्शन

आरा में आन्दोलन की कमान कुंवर सिंह ने संभाल ली और जगदीशपुर में विदेशी सेना से मोर्चा लेकर सहसराम और रोहतास में विद्रोह की अग्नि प्रज्ज्वलित की। उसके बाद वे 500 सैनिकों के साथ रीवा पहुँचे और वहाँ के ज़मींदारों को अंग्रेज़ों से युद्ध के लिए तैयार किया। वहाँ से बांदा होते हुए कालपी और फिर कानपुर पहुँचे। तब तक तात्या टोपे से उनका सम्पर्क हो चुका था। कानपुर की अंग्रेज़ सेना पर आक्रमण करने के बाद वे आजमगढ़ गये और वहाँ के सरकारी खजाने पर अधिकार कर छापामार शैली में युद्ध जारी रखा। यहाँ भी अंग्रेज़ी सेना को पीछे हटना पड़ा।

निधन

इस समय बाबू कुंवर सिंह की उम्र 80 वर्ष की हो चली थी। वे अब जगदीशपुर वापस आना चाहते थे। नदी पार करते समय अंग्रेज़ों की एक गोली उनकी ढाल को छेदकर बाएं हाथ की कलाई में लग गई थी। उन्होंने अपनी तलवार से कलाई काटकर नदी में प्रवाहित कर दी। वे अपनी सेना के साथ जंगलों की ओर चले गए और अंग्रेज़ी सेना को पराजित करके 23 अप्रैल, 1858 को जगदीशपुर पहुँचे। लोगों ने उनको सिंहासन पर बैठाया और राजा घोषित किया। परन्तु कटे हाथ में सेप्टिक हो जाने के कारण '1857 की क्रान्ति' के इस महान नायक ने 26 अप्रैल, 1858 को अपने जीवन की इहलीला को विराम दे दिया।  

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 538 |


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