वेणु

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  • 'कुपुत्र की अपेक्षा पुत्रहीन रहना ही भला था।' महाराज अंग ने देवताओं का पूजन करके पुत्र प्राप्त किया और वह पुत्र घोरकर्मा हो गया। प्रजा उसके उपद्रवों से त्राहि-त्राहि करने लगी है। ताड़नादि से भी उसका शासन हो नहीं पाता। महाराज को वैराग्य हो गया। रात्रि में वे चुपचाप अज्ञात वन में चले गये।
  • 'कोई यज्ञ न करे! कोई किसी देवता का पूजन न करे। एकमात्र राजा ही प्रजा के आराध्य हैं! आज्ञाभंग करने वाला कठोर दण्ड पायेगा।' भेरीनाद के साथ ग्राम-ग्राम में घोषणा हो रही थी। महाराज अंग का कोई पता न लगा। ऋषियों ने उनके पुत्र वेन को सिंहासन पर बैठाया। राज्य पाते ही उसने यह घोषणा करायी।
  • 'राजन! यज्ञ से यज्ञपति भगवान विष्णु तुष्ट होंगे! उनके प्रसन्न होने पर आपका और प्रजा का भी कल्याण होगा!' ऋषि गण वेन को समझाने एकत्र होकर आये थे। उस दर्पमत्त ने उनकी अवज्ञा की। ऋषियों का रोष हुंकार के साथ कुशों में ही ब्रह्मास्त्र की शक्ति बन गया। वेन मारा गया। वेन की माता सुनीथा ने पुत्र का शरीर स्नेहवश सुरक्षित रखा।
  • 'ये साक्षात जगदीश्वर के अवतार हैं!' उन दूर्वादलश्याम, प्रलम्बबाहु, कमलाक्ष पुरुष को देखकर ऋषिगण प्रसन्न हुए। अराजकता होने पर प्रजा में दस्यु बढ़ गये थे। चोरी, बलप्रयोग, मर्यादानाश, परस्वहरणादि बढ़ रहे थे। शासक आवश्यक था। ऋषियों ने एकत्र होकर वेन के शरीर का मन्थन प्रारम्भ किया उसके ऊरू से प्रथम ह्रस्वकाय, कृष्णवर्ण पुरुष उत्पन्न हुआ। उसकी सन्तानें निषाद कही गयीं। मन्थन चलता रहा। दक्षिण हस्त से पृथु और वाम बाहु से उनकी नित्य-सहचरी लक्ष्मी स्वरूपा आदि सती अर्चि प्रकट हुई।

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