कर्मनाशा नदी

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  • कर्मनाशा नदी वाराणसी (उत्तर प्रदेश) और आरा (बिहार) जिलों की सीमा पर बहने वाली नदी जिसे अपवित्र माना जाता था।[1] इसका कारण यह जान पड़ता है कि बौद्धधर्म के उत्कर्षकाल में बिहार-बंगाल में विशेष रूप से बौद्धों की संख्या का आधिक्य हो गया था और प्राचीन धर्मावलंबियों के लिए ये प्रदेश अपूजित माने जाने लगे थे। कर्मनाशा को पार करने के पश्चात् बौद्धों का प्रदेश प्रारंभ हो जाता था इसलिए कर्मनाशा को पार करना या स्पर्श भी करना अपवित्र माना जाने लगा। इसी प्रकार अंग, बंग, कलिंग और मगध बौद्धों के तथा सौराष्ट्र जैनों के कारण अगम्य समझे जाते थे[2]

यह बात दीगर है कि पतित पावनी गंगा में मिलते ही उक्त नदी का जल भी पवित्र हो जाता है। वैसे कर्मनाशा की भौगोलिक स्थिति यह है कि वह उतर प्रदेश व बिहार के बीच रेखा बनकर सीमा का विभाजन करती है। पूर्व मध्य रेलवे ट्रैक पर ट्रेन पर सवार होकर पटना से दिल्ली जाने के क्रम में बक्सर जनपद के पश्चिमी छोर पर उक्त नदी का दर्शन होना स्वाभाविक है।

कर्मनाशा नदी का उद्गम

कर्मनाशा नदी का उद्गम कैमूर ज़िला के अधौरा व भगवानपुर स्थित कैमूर की पहाड़ी से हुआ है। जो बक्सर के समीप गंगा नदी में विलीन हो जाती है। नदी के उत्पत्ति के बारे में पौराणिक आख्यानों में वर्णन मिलता है। जिसके अनुसार महादानी हरिश्चंद्र के पिता व सूर्यवंशी राजा त्रिवंधन के पुत्र सत्यव्रत, जो त्रिशंकु के रूप में विख्यात हुए उन्हीं के लार से यह नदी अवतरित हुयी। जिसके बारे में वर्णन है कि महाराज त्रिशंकु अपने कुल गुरु वशिष्ठ के यहाँ गये और उनसे सशरीर स्वर्ग लोक में भेजने का आग्रह किया। पर, वशिष्ठ ने यह कहते हुए उनकी इच्छा को ठुकरा दिया कि स्वर्गलोक में सदेह जाना सनातनी नियमों के विरुद्ध है। इसके बाद वे वशिष्ठ पुत्रों के यहाँ पहुंचे और उनसे भी अपनी इच्छा जताई। लेकिन, वे भी गुरु वचन के अवज्ञा करने की बात कहते हुए उन्हे चंडाल होने का शाप दे दिया। सो, वह वशिष्ठ के द्रोही महर्षि विश्वामित्र के यहाँ चले गये और उनके द्वारा खुद को अपमानित करने का स्वांग रचकर उन्हे उकसाया। लिहाजा, द्वेष वश वे अपने तपोबल से महाराज त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया। इस पर वहाँ देवताओं ने आश्चर्य प्रकट करते हुए गुरु श्राप से भ्रष्ट त्रिशंकु को नीचे मुंह करके स्वर्ग से धरती पर भेजने लगे। फिर ऐसा ही हुआ और त्रिशंकु त्राहिमाम करते हुए धरती पर गिरने लगे। इसकी जानकारी होते ही विश्वामित्र ठहरो बोलकर पुन: उन्हे वहाँ भेजने का प्रयत्‍‌न किया। जिससे देवताओं व विश्वामित्र के तप के द्वंद में सिर नीचे किये त्रिशंकु आसमान में ही लटक गये। जिनके मुंह से लार टपकने लगी। जिसके तेज धार से नदी का उदय हुआ। जो कर्मनाशा के नाम से जानी गयी। कर्मनाशा शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य कृष्णानंद जी पौराणिक 'शास्त्रीजी' का कहना था कि जिस नदी के दर्शन व स्नान से नित्य किये गये कर्मो के पुण्य का क्षय, धर्म, वर्ण व संप्रदाय का नाश होता है, वह कर्मनाशा कहलाती है। उन्होंने कहा कि उक्त नदी का उल्लेख श्रीमद्भागवत, महापुराण, महाभारत व श्री रामचरितमानस में भी आया है।

  1. 'कर्मनाशा नदी स्पर्शात् करतोया विलंघनात्, गंडकी बाहुतरणाद् धर्मस्खलति कीर्तनात्' आनंदरामायण- यात्राकांड 9,3
  2. अंगबंगकलिंगेषुसौराष्ट्रमागधेषु च, तीर्थयात्रां विना गच्छन् पुन: संस्कारमर्हति'- तीर्थप्रकाश

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