सशस्त्र बल विशेष शक्तियाँ अधिनियम

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सशस्त्र बल विशेष शक्तियाँ अधिनियम (अफस्पा) (अंग्रेज़ी: Armed Forces Special Powers Acts or AFSPA) अशांत क्षेत्रों में सुरक्षा बलों को बिना किसी पूर्व नोटिस के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और ऑपरेशन चलाने की विशेष इजाजत देता है। 45 साल पहले भारतीय संसद ने 'अफस्पा' यानी 'आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट' 1958 को लागू किया, जो एक फौजी क़ानून है, जिसे अशांत क्षेत्रों में लागू किया जाता है। यह क़ानून सुरक्षा बलों और सेना को कुछ विशेष अधिकार देता है।

शुरुआत

सशस्त्र बल विशेष शक्तियाँ अधिनियम भारतीय संसद द्वारा 11 सितंबर, 1958 को पारित किया गया था। अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड के ‘अशांत इलाकों’ में तैनात सैन्‍य बलों को शुरू में इस क़ानून के तहत विशेष अधिकार हासिल थे। कश्मीर घाटी में आतंकवादी घटनाओं में बढोतरी होने के बाद जुलाई, 1990 में यह क़ानून सशस्त्र बल (जम्मू एवं कश्मीर) विशेष शक्तियां अधिनियम, 1990 के रूप में जम्मू-कश्मीर में भी लागू किया गया। हालांकि राज्‍य के लद्दाख इलाके को इस क़ानून के दायरे से बाहर रखा गया। किसी क्षेत्र विशेष में अफस्पा तभी लागू किया जाता है, जब राज्य या केंद्र सरकार उस क्षेत्र को 'अशांत क्षेत्र क़ानून' अर्थात 'डिस्टर्बड एरिया एक्ट' घोषित कर देती है। अफस्पा क़ानून केवल उन्हीं क्षेत्रों में लगाया जाता है, जो कि अशांत क्षेत्र घोषित किये गए हों। इस क़ानून के लागू होने के बाद ही वहां सेना या सशस्त्र बल भेजे जाते हैं।

किसी क्षेत्र का अशांत घोषित होना

किसी राज्य या क्षेत्र को अशांत क्षेत्र कब घोषित किया जाता है?

जब किसी क्षेत्र में नस्लीय, भाषीय, धार्मिक, क्षेत्रीय समूहों, जातियों की विभिन्नता के आधार पर समुदायों के बीच मतभेद बढ़ जाता है, उपद्रव होने लगते हैं तो ऐसी स्थिति को सँभालने के लिये केंद्र या राज्य सरकार उस क्षेत्र को अशान्त घोषित कर सकती है। अधिनियम की धारा (3) के तहत, राज्य सरकार की राय का होना जरूरी है कि क्या एक क्षेत्र अशान्त है या नहीं। एक बार अशान्त क्षेत्र घोषित होने के बाद कम से कम तीन महीने तक वहाँ पर स्पेशल फोर्स की तैनाती रहती है।

किसी राज्य में अफस्पा क़ानून लागू करने का फैसला या राज्य में सेना भेजने का फैसला केंद्र सरकार नहीं बल्कि राज्य सरकार को करना पड़ता है। अगर राज्य की सरकार यह घोषणा कर दे कि अब राज्य में शांति है तो यह क़ानून अपने आप ही वापस हो जाता है और सेना को हटा लिया जाता है।

शक्तियाँ

अफस्पा क़ानून का सबसे बड़ा विरोध इसमें सशस्त्र बलों को दी जाने वाली दमनकारी शक्तियां ही हैं। कुछ शक्तियां इस प्रकार हैं-

  1. किसी भी संदिग्ध व्यक्ति को बिना किसी वारंट के गिरफ्तार किया जा सकता है।
  2. सशस्त्र बल बिना किसी वारंट के किसी भी घर की तलाशी ले सकते हैं और इसके लिए जरूरी बल का इस्तेमाल किया जा सकता है।
  3. यदि कोई व्यक्ति अशांति फैलाता है, बार-बार क़ानून तोड़ता है तो उसकी मृत्यु तक बल का प्रयोग किया जा सकता है।
  4. यदि सशस्त्र बलों को अंदेशा है कि विद्रोही या उपद्रवी किसी घर या अन्य बिल्डिंग में छुपे हुए हैं, जहां से हथियार बंद हमले का अंदेशा हो तो उस आश्रय स्थल या ढांचे को तबाह किया जा सकता है।
  5. किसी भी वाहन को रोक कर उसकी तलाशी ली जा सकती है।
  6. सशस्त्र बलों द्वारा गलत कार्यवाही करने की दशा में भी, उनके ऊपर क़ानूनी कार्यवाही नहीं की जाती है।

पक्ष-विपक्ष में तर्क

पक्ष
  1. अफस्पा द्वारा मिली शक्तियों के आधार पर ही सशस्त्र बल देश में उपद्रवकारी शक्तियों के खिलाफ मजबूती से लड़ पा रहे हैं और देश की एकता और अखंडता की रक्षा कर पा रहे हैं।
  2. अफस्पा की ताकत से ही देश के अशांत हिस्सों जैसे जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में आतंकी संगठनों और विद्रोही गुटों जैसे उल्फा इत्यादि से निपटने में सुरक्षा बलों का मनोबल बढ़ा है।
  3. देश के अशांत क्षेत्रों में क़ानून का राज कायम हो सका है।
विपक्ष
  1. सुरक्षा बलों के पास बहुत ही दमनकारी शक्तियां हैं, जिनका सशस्त्र बल दुरुपयोग करते हैं। फर्जी एनकाउंटर, यौन उत्पीड़न आदि के मामले इसका पुख्ता सबूत हैं।
  2. यह क़ानून मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है।
  3. इस क़ानून की तुलना अंग्रेजों के समय के 'रौलट एक्ट' से की जा सकती है, क्योंकि इसमें भी किसी को केवल शक के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता है।
  4. यह क़ानून नागरिकों के मूल अधिकारों का निलंबन करता है।


अफस्पा क़ानून के आलोचकों का तर्क है कि जहाँ बात वैलेट से बन सकती है, वहां पर बुलेट चलाने की कोई जरूरत नही है। यदि यह क़ानून लागू होने के 60 वर्ष बाद भी अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पाया और इसके द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों का पुख्ता तौर पर हनन हुआ है तो निश्चित रूप से इस क़ानून के प्रावधानों के समीक्षा की जाने की जरूरत है। इस क़ानून का विरोध करने वालों में मणिपुर की कार्यकर्ता इरोम शर्मिला का नाम प्रमुख है, जो इस क़ानून के खिलाफ 16 सालों से अनशन पर थीं। उनके विरोध की शुरुआत सुरक्षा बलों की कार्यवाही में कुछ निर्दोष लोगों के मारे जाने की घटना से हुई। संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिर आयोग के कमिश्‍नर रहे नवीनतम पिल्‍लई ने 23 मार्च, 2009 को इस क़ानून के खिलाफ जबरदस्‍त आवाज उठायी थी और इसे पूरी तरह से बंद कर देने की मांग की थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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