Revision as of 07:07, 23 August 2011 by प्रीति चौधरी(talk | contribs)('{| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |चित्र=Kanhailal Nandan.j...' के साथ नया पन्ना बनाया)
रूप की जब उजास लगती है
ज़िन्दगी
आसपास लगती है
तुमसे मिलने की चाह
कुछ ऐसे
जैसे ख़ुशबू को
प्यास लगती है।
(दो)
न कुछ कहना
न सुनना
मुस्कराना
और आँखों में ठहर जाना
कि जैसे
रौशनी की
एक अपनी धमक होती है
वो इस अंदाज़ से
मन की तहों में
घुस गए
उन्हें मन की तहों ने
इस तरह अंबर पिरोया है
सुबह की धूप जैसे
हार में
शबनम पिरोती है।
(तीन)
जैसे तारों के नर्म बिस्तर पर
खुशनुमा चाँदनी
उतरती है
इस तरह ख्वाब के बगीचे में
ज़िन्दगी
अपने पाँव धरती है
और फिर क़रीने से
ताउम्र
सिर्फ़
सपनों के
पर कुतरती है।
(चार)
ज़िन्दगी की ये ज़िद है
ख़्वाब बन के
उतरेगी।
नींद अपनी ज़िद पर है
- इस जनम में न आएगी
दो ज़िदों के साहिल पर
मेरा आशियाना है
वो भी ज़िद पे आमादा
-ज़िन्दगी को
कैसे भी
अपने घर
बुलाना है।