परुच्छेप देवोदासी

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परुच्छेप देवोदासी ऋग्वेद के प्रथम मंडल के क्रमांक 127 से 139 तक सूक्तों के द्रष्टा हैं। इन सूक्तों में अग्नि, इन्द्र, वायु, मित्रावरुण, पूषा व विश्वदेव की स्तुति है। इन्द्र की प्रार्थना करते हुए वे कहते हैं-

‘त्वं इन्द्र राया परीणसा याद्धि
पथां अनेहसा पुरो याह्यरक्षसा
सचस्व न: पराक आ सचस्वास्तमीक आ
पाहि नो दूरादारादभिष्टिभि: सदा पाह्यभिष्टिभि:।’[1]

अर्थ-

हे इन्द्र, जो मार्ग विपुल वैभव का व निर्दोष हो, उसी मार्ग से हमें ले चलो। जिस मार्ग में राक्षस न हों, उसी मार्ग से हमें ले चलो, हम परदेश में हों तो भी हमारे साथ रहो, और हम अपने घर में हों तो भी हमारे साथ रहो। हम पास हों या दूर, आप सदा ही अपनी कृपा छत्र रखें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 480 |

  1. (ऋग्वेद, 1, 129, 9)

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