नीरद चन्द्र चौधरी

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नीरद चन्द्र चौधरी (अंग्रेज़ी: Nirad Chandra Chaudhuri ; जन्म- 23 नवम्बर, 1897, किशोरगंज, पूर्वी बंगाल[1]; मृत्यु- 1 अगस्त, 1999, ऑक्सफ़ोर्ड, इंग्लैण्ड) भारत में जन्मे प्रसिद्ध बांग्ला तथा अंग्रेज़ी लेखक और विद्वान, जिनकी अंतिम पुस्तक 'थ्री हॉर्समेन ऑफ़ द न्यू एपोकैलिप्स' (1997) का प्रकाशन उनके सौवें जन्मदिन से कुछ ही दिन पहले हुआ था।

परिचय

नीरद चन्द्र चौधरी का जन्म 23 नवम्बर, 1897 को पूर्वी बंगाल (आज का बांग्लादेश) के किशोरगंज में हुआ था। वकील पिता और निरक्षर माता के बेटे नीरद चन्द्र चौधरी का शेक्सपीयर तथा संस्कृत के शास्त्रीय ग्रंथों पर समान अधिकार था। वह अपनी संस्कृति के ही समान पश्चिमी संस्कृति के भी प्रशंसक थे। वह एक पांडित्यपूर्ण, लेकिन जटिल व सनकी व्यक्ति थे और उनकी सबसे सटीक व्याख्या ग़लत स्थान पर ग़लत समय में जन्मे व्यक्ति के रूप में की जा सकती है।

ब्रिटिश शासन के वफ़ादार

भारत के साहित्यिक परिदृश्य पर नीरद चन्द्र चौधरी का आगमन विवादों से घिरा हुआ था। वह ब्रिटिश शासन के प्रति वफ़ादार थे और उन्होंने अपनी पहली पुस्तक 'द ऑटोबायोग्राफ़ी ऑफ़ एन अननोन इंडियन' (1951) को ब्रिटिश साम्राज्य को समर्पित किया था। उनका दृढ़ विश्वास था कि "हममें जो कुछ भी अच्छा तथा जीवंत है, वह दो सौ वर्ष पुराने औपनिवेशिक शासन के दौरान ही पोषित और विकसित हुआ है।" अपनी असुरक्षाओं से जूझने की कोशिश कर रहे नव-स्वतंत्र राष्ट्र में, जहां उपनिवेश विरोधी भावनाएं चरम पर थीं, उनकी कृति का स्वागत नहीं हुआ। वह अस्वीकार्य व्यक्ति बन गए और उन्हें बौद्धिक यंत्रणाएं झेलनी पड़ीं। व्यवस्था ने उनके प्रति काफ़ी कड़ा रुख अपनाया और उन्हें ऑल इंडिया रेडियो से बाहर निकाल दिया गया, जहां वह प्रसारक तथा राजनीतिक टिप्पणीकार के रूप में कार्यरत थे।

इंग्लैण्ड में निवास

नीरद चन्द्र चौधरी को 'अंतिम ब्रिटिश साम्राज्यवादी' और 'अंतिम भूरा साहब' कहा गया। उनकी कृति की लगातार आलोचना की गई तथा भारत के साहित्यिक जगत से उन्हें निष्कासित कर दिया गया। स्वनिर्वासन के तौर पर 1970 के दशक में वह इंग्लैंण्ड रवाना हो गए और विश्वविद्यालय शहर ऑक्सफ़ोर्ड में बस गए। उनके लिए यह घर लौटने के समान था। लेकिन यह घर उस इंग्लैण्ड से काफ़ी भिन्न था, आदर्श रूप में चौधरी जिसकी कल्पना करते थे।

सम्मान

इंग्लैण्ड में भी नीरद चौधरी उतने ही अलग-थलग थे, जितने भारत में। अंग्रेज़ों ने उन्हें सम्मान दिया, उन्हें ऑ'क्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय' से मानद डॉक्टरेट की उपाधि मिली। उन्हें महारानी की ओर से मानद सी.बी.ई. से सम्मानित किया गया, लेकिन वे लोग उनकी दृढ़ भारतीयता के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के पुराने वैभव की उनकी यादों के क़ायल नहीं हो पाए।

कृतियाँ तथा आत्मकथा

चौधरी भी इंग्लैण्ड में कुछ वर्षों में हुए आमूलचूल परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पाए और मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के पूर्ण अभाव से काफ़ी निराश हुए, क्योंकि इसी विशेषता ने एक समय में इंग्लैण्ड को महान राष्ट्र बनाया था। उनकी ये भावनाएँ उनकी कृतियों और उनकी आत्मकथा के अंतिम खंड 'दाई हैंड', 'ग्रेट एनार्क' (1987) में प्रदर्शित होती है, जो उन्होंने 90 वर्ष की आयु में लिखी थी। उन्होंने लिखा कि- "अग्रेज़ों की महानता हमेशा के लिए समाप्त हो गई है।" उनके निबंधों की अंतिम पुस्तक 'थ्री हॉर्समेन ऑफ़ द न्यू एपोकैलिप्स' भारतीय नेतृत्व और राष्ट्र के पतन के बारे में टिप्पणी है।

देशवासियों की प्रशंसा

बाद के वर्षों में नीरद चन्द्र चौधरी को अपने देशवासियों की प्रशंसा मिली, जिन्होंने पहले उन्हें ग़लत समझा था और उनकी अनदेखी की थी। एक अधिक परिपक्व, सर्वदेशीय और आत्मविश्वास से युक्त उच्च वर्ग ने उनकी आत्मकथा के अंतिम खंड की प्रशंसा की। उन्होंने फिर से बांग्ला में लिखना शुरू किया और बाद में उन्हें कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में एक साहित्यिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

निधन

नीरद चन्द्र चौधरी का निधन 1 अगस्त, 1999 को ऑक्सफ़ोर्ड, इंग्लैण्ड में हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वर्तमान बांग्लादेश

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