श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 21 श्लोक 1-10

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 13:18, 29 October 2017 by व्यवस्थापन (talk | contribs) (Text replacement - "स्वरुप" to "स्वरूप")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

एकादश स्कन्ध : एकविंशोऽध्यायः (21)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकविंशोऽध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


गुण-दोष-व्यवस्था का स्वरूप और रहस्य भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव! मेरी प्राप्ति के तीन मार्ग हैं—भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग। जो इन्हें छोड़कर चंचल इन्द्रियों के द्वारा क्षुद्र भोग भोगते हैं, वे बार-बार जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर में भटकते रहते हैं । अपने-अपने अधिकार के अनुसार धर्म में दृढ़ निष्ठा रखना ही गुण कहा गया है और इसके विपरीत अनधिकार चेष्टा करना दोष है। तात्पर्य यह कि गुण और दोष दोनों की व्यवस्था अधिकार के अनुसार की जाती है, किसी वस्तु के अनुसार नहीं । वस्तुओं के समान होने पर भी शुद्धि-अशुद्धि, गुण-दोष और शुभ-अशुभ आदि का जो विधान किया जाता है, उसका अभिप्राय यह है कि पदार्थ का ठीक-ठीक निरिक्षण-परिक्षण हो सके और उसमें सन्देह उत्पन्न करके ही यह योग्य है कि अयोग्य, स्वाभाविक प्रवृत्ति को नियन्त्रित-संकुचित किया जा सके । उनके द्वारा धर्म-सम्पादन कर सके, समाज का व्यवहार ठीक-ठीक चला सके और अपने व्यक्तिगत जीवन के निर्वाह में भी सुविधा हो। इससे यह लाभ भी है कि मनुष्य अपनी वासनामूलक सहज वृत्तियों के द्वारा इनके जाल में न फँसकर शास्त्रानुसार अपने जीवन को नियन्त्रित और मन को वशीभूत कर लेता है। निष्पाप उद्धव! यह आचार मैंने ही मनु आदि का रूप धारण करके धर्म का भर ढोने वाले कर्म जड़ों के लिये उपदेश किया है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश—ये पंचभूत ही ब्रम्हा से लेकर पर्वत-वृक्षपर्यन्त सभी प्राणियों के शरीरों के मूलकारण हैं। इस तरह वे सब शरीर की दृष्टि से तो समान हैं ही, सबका आत्मा भी एक ही है । प्रिय उद्धव! यद्यपि सबके शरीरों के पंचभूत समान हैं, फिर भी वेदों ने इनके वर्णाश्रम आदि अलग-अलग नाम और रूप इसलिये बना दिये हैं कि ये अपनी वासना-मूलक प्रवृत्तियों को संकुचित करके—नियन्त्रित करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थों को सिद्ध कर सके । साधुश्रेष्ठ! देश, काल, फल, निमित्त, अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओं के गुण-दोषों का विधान भी मेरे द्वारा इसीलिये किया गया है कि कर्मों में लोगों की उच्छ्रंखल प्रवृत्ति न हो, मर्यादा का भंग न होने पावे । देशों में व देश अपवित्र है, जिसमें कृष्णसार मृग न हों और जिसके निवासी ब्राम्हण-भक्त न हों। कृष्णसार मृग के होने पर भी, केवल उन प्रदेशों को छोड़कर जहाँ संत पुरुष रहते हैं, कीकट देश अपवित्र ही है। संस्काररहित और ऊसर आदि स्थान भी अपवित्र ही होते हैं । समय वही पवित्र हैं, जिसमें कर्म करने योग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म भी हो सके। जिसमें कर्म करने की सामग्री न मिले, आगन्तुक दोषों से अथवा स्वाभाविक दोष के कारण जिसमें कर्म ही न हो सके, वह समय अशुद्ध है । पदार्थों की शुद्धि और अशुद्धि द्रव्य, वचन, संस्कार, काल, महत्व अथवा अल्पत्व से भी होती है। (जैसे कोई पात्र जल से शुद्ध और मुत्रादि से अशुद्ध हो जाता है। किसी वस्तु की शुद्धि अथवा अशुद्धि में शंका होने पर ब्राम्हणों के वचन से वह शुद्ध हो जाती है अन्यथा अशुद्ध रहती है। पुष्पादि जल छिड़कने से शुद्ध और सूँघने से अशुद्ध माने जाते हैं। तत्काल का पकाया हुआ अन्न शुद्ध और बासी अशुद्ध माना जाता है। बड़े सरोवर और नदी आदि का जल शुद्ध और छोटे गड्ढ़ों का अशुद्ध माना जाता है। इस प्रकार क्रम से समझ लेना चाहिये।) ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः