अप्सरस्‌

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अप्सरस् (स्त्रीलिंग) (-राः, रा) [अद्भ्यः सरन्ति उद्गच्छन्ति-अप्+सृ+असुन्] [तु. रामा. अप्सु निर्मथनादेव रसात्तस्माद्वरस्त्रियः, उत्पेतुर्मनुजश्रेष्ठ तस्मादप्सरसोऽभवन्]।

  • आकाश में रहने वाली देवांगनाएँ जो गन्धर्वों की पत्नियाँ समझी जाती हैं, उन्हें जलक्रीड़ा बड़ी रुचिकर है, वह अपना रूप बदल सकती हैं तथा दिव्य प्रभाव से युक्त हैं, वह प्रायः इन्द्र की नर्तकियाँ हैं और 'स्वर्वेश्याः' कहलाती हैं। बाण ने इस प्रकार की परियों के 14 कुलों का वर्णन किया है- दे. का. 136; यह शब्द बहुधा बहुवचन में (स्त्रियां बहुष्वपसरसः) प्रयुक्त होता है, परन्तु एक वचन में प्रयोग तथा 'अप्सरा' रूप कई बार देखने में आता है-नियमविघ्नकारिणी मेनका नाम अप्सराः प्रेषिता-श. 1, एकाप्सरः आदि.-रघु. 7/53


सम.-तीर्थम् (न.) अप्सराओं के नहाने के लिए पवित्र तालाब, यह संभवतः किसी स्थान का नाम है- दे. श. 6,-पतिः (पुल्लिंग) अप्सराओं का स्वामी इन्द्र की उपाधि।[1]


  1. REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश |लेखक: वामन शिवराम आप्टे |प्रकाशक: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 |पृष्ठ संख्या: 75 |

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