अभि

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अभि (अव्य.) [नञ्+भा+कि]

1. (धातु और शब्दों से पूर्व लगाया जाने वाला उपसर्ग) अर्थ-
(क) 'की ओर', 'की दिशा में', अभिगम् की ओर जाना, अभिया, °गमनम्, प्यानम् आदि।
(ख) 'के लिए के विरुद्ध' °लष, °पत् आदि।
(ग) 'पर' 'ऊपर' °सिंच पर छिड़कना आदि।
(घ) 'ऊपर से' 'ऊपर'. 'परे' °भू, हावी हो जाना, °तन्।
(ङ) 'अधिकता से' 'बहुत' °कंप
2. (विशेषण तथा स्वतन्त्र संज्ञा शब्दों से पूर्व लगने वाला उपसर्ग)-अर्थ-
(क) तीव्रता और प्राधान्य, °धर्मः-प्रधान कर्तव्य, °ताम्र-अत्यंत लाल, °नव-बिलकुल नया।
(ख) 'की ओर' 'की दिशा में' अव्ययी भाव समास बनाना °चैद्यम, °मुखम्, °दूति आदि।
3. (कर्म. के साथ संबं. अव्य. के रूप में)
(क) 'की ओर' की 'दिशा में 'के विरुद्ध' (कर्म के साथ या इसी अर्थ में समास के साथ) अभ्यग्नि या अग्निमभि शलभाः पतति, वृक्षमभिद्योतते विद्युत्-सिद्धा.
(ख) 'निकट' 'पहले' 'सामने' 'उपस्थिति में'
(ग) पर ऊपर, संकेत करते हुए, के विषय में-साधु देवदत्तो मातरमभि-सिद्धा.
(घ) पृथक् पृथक्, एक-एक करके (विभाग द्वारा)-वृक्षं वृक्षमभिषिंचति-सिद्धा.।[1]


  1. REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश |लेखक: वामन शिवराम आप्टे |प्रकाशक: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 |पृष्ठ संख्या: 77 |

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