अनृणं
अनृणं (विशेषण) [नास्ति ऋणं यस्य, न. ब.]
- जो कर्जदार न हो, प्रत्येक द्विज को तीन ऋणों से उऋण होना पड़ता है-ऋषिऋण, देवऋण और पितृऋण। जो व्यक्ति वदोध्ययन करके यज्ञ में देवताओं का आवाहन करता है और फिर गृहस्थाश्रम में रहकर पुत्र प्राप्त करता है, वही 'अनृण' कहलाता है।[1]
- REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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