तैत्तिरीयोपनिषद शिक्षावल्ली अनुवाक-10: Difference between revisions

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*इस अनुवाक में [[त्रिशंकु]] ऋषि अपने ज्ञान-अनुभव द्वारा स्वयं को ही अमृत-स्वरूप इस विश्व-रूपी वृक्ष के ज्ञाता सिद्ध करते हैं और अपने यश को सबसे ऊंचे गिरि शिखर से भी ऊंचा मानते हैं।  
*इस अनुवाक में [[त्रिशंकु]] ऋषि अपने ज्ञान-अनुभव द्वारा स्वयं को ही अमृत-स्वरूप इस विश्व-रूपी वृक्ष के ज्ञाता सिद्ध करते हैं और अपने यश को सबसे ऊंचे गिरि शिखर से भी ऊंचा मानते हैं।  
*वे स्वयं को अमृत-स्वरूप अन्नोत्पादक [[सूर्य देवता|सूर्य]] में व्याप्त मानते हैं यहाँ ऋषि की स्थिति वही है, जब एक ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्म से साक्षात्कार करने के उपरान्त स्वयं को ही 'अहम ब्रह्मास्मि', अर्थात 'मैं ही ब्रह्म हूं' कहने लगता है।  
*वे स्वयं को अमृत-स्वरूप अन्नोत्पादक [[सूर्य देवता|सूर्य]] में व्याप्त मानते हैं यहाँ ऋषि की स्थिति वही है, जब एक ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्म से साक्षात्कार करने के उपरान्त स्वयं को ही 'अहम ब्रह्मास्मि', अर्थात् 'मैं ही ब्रह्म हूं' कहने लगता है।  
*अद्वैत भाव से वह 'ब्रह्म' से अलग नहीं होता।
*अद्वैत भाव से वह 'ब्रह्म' से अलग नहीं होता।


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Latest revision as of 07:59, 7 November 2017

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य
  • इस अनुवाक में त्रिशंकु ऋषि अपने ज्ञान-अनुभव द्वारा स्वयं को ही अमृत-स्वरूप इस विश्व-रूपी वृक्ष के ज्ञाता सिद्ध करते हैं और अपने यश को सबसे ऊंचे गिरि शिखर से भी ऊंचा मानते हैं।
  • वे स्वयं को अमृत-स्वरूप अन्नोत्पादक सूर्य में व्याप्त मानते हैं यहाँ ऋषि की स्थिति वही है, जब एक ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्म से साक्षात्कार करने के उपरान्त स्वयं को ही 'अहम ब्रह्मास्मि', अर्थात् 'मैं ही ब्रह्म हूं' कहने लगता है।
  • अद्वैत भाव से वह 'ब्रह्म' से अलग नहीं होता।


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