घर -कुलदीप शर्मा: Difference between revisions

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छाले की तरह उग कर
छाले की तरह उग कर
चला आया था वहां
चला आया था वहां
पर वह मकान आया जरूर
पर वह मकान आया ज़रूर
ठीक उस जगह
ठीक उस जगह
घर बनने के लिए
घर बनने के लिए

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घर -कुलदीप शर्मा
कवि कुलदीप शर्मा
जन्म स्थान (उना, हिमाचल प्रदेश)
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कुलदीप शर्मा की रचनाएँ

 
पता नहीं
उस स्त्री की आंखों में
उगा था पहली बार
वह सपने की तरह
जैसे थूहर पर
उगती है बरू की घास
बरसात के शुरुआती दिनों म़े
या उस मर्द के हाथों में
छाले की तरह उग कर
चला आया था वहां
पर वह मकान आया ज़रूर
ठीक उस जगह
घर बनने के लिए
जहां आदमी के
उग सकने की संभावनाएं
उतनी ही थी
जितनी कि सपनों की़
जल पृथ्वी वायु और आकाश से
बना वह घर
बीच में आग के लिए स्थान
रखता हुआ
पता नहीं कैसी गंध थी
उस मिट्टी में
कि उसे आकार लेना था
प्राचीन सपने का
कैसी महकी हुई थी हवा
कि उसे आना था
तमाम दीवारें तोड़ कर
दीवारों के बीच़
खिड़कियों को छूते हुए
पहुंचना था आंगन तक़
वह स्त्री आसमान उलीच लेती
अगर उसके लिए
एक छत न तानता उसका मर्द
वह स्त्री डूबकर बह गई होती
दर्द की उस लहकती हुई नदी में
अगर उस दीवार में
पूर्व की ओर न खुलती
एक खिड़की़
वह मर्द इस तरह इत्मीनान से
न गुड़गुड़ा रहा होता हुक्का
दीवार से पीठ सटाकर
अगर उस दीवार के पीछे न होती
उस औरत की महक़
वह निकल गया होता
बारिश में भीगता हुआ
किसी बीहड़ की और
अगर उसे ढक न लेती वह स्त्री
एक छत की तरह़
डसने ढूंढ ली होती
कोई प्राचीन कन्दरा
और निकल गया होता
रामनामी ओढ़
मोक्ष की तलाश में
अगर उस स्त्री ने
आंगन में न उतार दिये होते
खेलने के लिए बच्च़े
हम सब खेलते हैं
घर 2 का खेल
हम सब की आंखों में
ईंट दर ईंट उगता है सपना
कहीं से भी आ जाती है एक स्त्री
कहीं से भी आ जाता है एक मर्द
हम सब खेलते हैं
दु:ख सुख के साथ
लुका छिपी का खेल
बच्चों के बहाने
पूरा संसार रख देते हैं
दीवारों के बीच
और हम सब
इत्मीनान से रहते हैं वहां
जो जीवन में
तमाम दीवारें तोड़ने का
सपना लेकर निकले थे


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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