ब्रजभाषा में रस: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "जिन्दगी" to "ज़िन्दगी") |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replacement - "शृंगार" to "श्रृंगार") |
(One intermediate revision by the same user not shown) | |
(No difference)
|
Latest revision as of 07:57, 7 November 2017
[[चित्र:Abdul-Rahim.jpg|thumb|अब्दुर्रहीम रहीम खानखाना]] रचना बाहुल्य के आधार पर प्राय: यह मान लिया जाता है कि, ब्रजभाषा काव्य का विषय रूप-वर्णन, शोभा-वर्णन, श्रृंगारी चेष्टा-वर्णन, श्रृंगारी हाव-भाव-वर्णन, प्रकृति के श्रृंगारोद्दीपक रूप का वर्णन विविध प्रकार की कामिनियों की विलासचर्या का वर्णन, ललित कला-विनोदों का वर्णन और नागर-नागरियों के पहिराव, सजाव, सिंगार का वर्णन तक ही सीमित है। इसमें साधारण मनुष्य के दु:ख-दर्द या उनके जीवन-संघर्ष का चित्र नहीं है, न कुछ अपवादों को छोड़कर जीवन में उत्साह वृद्धि जगाने के लिए विशेष चाव है। इसमें जो आलौकिक, आध्यात्मिक भाव है भी, वह भी या तो अलक्षित और सुकुमार भावों की परिधि के भीतर ही समाये हुए हैं या मनुष्य के दैन्य या उदास भाव के अतिरेक से ग्रस्त हैं। ब्रजभाषा काव्य का संसार इस प्रकार बड़ा ही संकुचित संसार है। पर जब हम ब्यौरे में जाते हैं और भक्ति-कालीन काव्य की ज़मीन का सर्वेक्षण करते हैं और उत्तर मध्यकाल की नीति-प्रधान रचनाओं में या आक्षेप प्रधान रचनाओं का पर्यवेक्षण करते हैं, तो यह संसार बहुत विस्तुत दिखाई पड़ता है। इसमें जिन्हें दरबारी कवि कहकर छोटा मानते हैं, उनकी कविता में गाँव के बड़े अनूठे चित्र हैं और लोक-व्यवहार के तो तरह-तरह के आयाम मिलते हैं। ये आयाम श्रृंगारी ही नहीं हैं अदभुत, हास्य, शान्त रसों के सैंकड़ों उदाहरण उस उत्तर मध्यकाल में भी मिलते हैं, जिसे श्रृंगार-काल कहा जाता है। यही नहीं, पद्माकर जैसे कवि की रचना में सूक्ष्म रूप में अंग्रेज़ों के आने के ख़तरे की चिन्ता भी मिलती है। भूषण की बात छोड़ भी दे, तो भी अनेक अनाम कवियों के भीतर धरती का लगाव, जो जन-जन के अराध्य आलंबनों से जुड़े हुए हैं, बहुत सरल ढंग से अंकित मिलता है। देव का एक प्रसिद्ध छन्द है, जिसमें बारात के आकर विदा होने में और उसके बाद की उदासी का चित्र मिलता है।
काम परयौ दुलही अरु दुलह, चाकर यार ते द्वार ही छूटे।
माया के बाजने बाजि गये परभात ही भात खवा उठि बूटे।
आतिसबाजी गई छिन में छूटि देकि अजौ उठिके अँखि फूटे।
‘देव’ दिखैयनु दाग़ बने रहे, बाग़ बने ते बरोठहिं लूटे।
[[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-19.jpg|सूरदास, सूर कुटी, सूर सरोवर, आगरा|thumb]] इसमें हँसी-खुशी वाली ज़िन्दगी के बाद आने वाले सूनेपन का बड़ा ही मार्मिक चित्र खींचा गया है। तुलसीदास की 'कवितावली' में तो भुखमरी, महामारी, अत्याचार-शोषण, इन सबके बड़े सशक्त और संक्षिप्त चित्र मिलते हैं। 'सूरसागर' में कहीं-कहीं सादृश्य-विधान के रूप में, कहीं सीधे रैयत के ऊपर पटवारी, अमीन, शिकदार, राजा के द्वारा एक के बाद एक पीढ़ी दर पीढ़ी किये जाने वाले अत्याचारों के चित्र हैं। संत कवियों की पदावली में भाँति-भाँति के व्यवसायों के दैनिक प्रयोग की शब्दावली मिलती है। रहीम, ग्वाल, देव की कविता में भिन्न-भिन्न प्रदेशों के रीति-रिवाज और पहिरावों के चित्र मिलते हैं। किसानी और गोपालन से सम्बद्ध शब्द-समृद्धि के बारे में तो कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है। सूरदास, बिहारी लाल, रसखान, रहीम, वृन्द, गिरिधर, बख्शी हंसराज का काव्य-संसार कृषिजीवी और गोपालन-जीवी वर्ग के दैनिक जीवन के सूक्ष्म चित्रों से भरा हुआ है। इसमें तरह-तरह की फ़सलों, उनके उगाने की प्रक्रियाओं, भाँति-भाँति की गायों की चेष्टाओं और गोदोहन से लेकर मक्खन बनाने की प्रक्रिया के चित्र ऐसे उरेहे गये हैं, जैसे लगता है कि एक ही लघुचित्र में इस प्रकार की ज़िन्दगी का समूचा सलोनापन बारीकी के साथ अंकित कर दिया गया हो। सूर ने निम्नलिखित पद में गायों के विविध रंगों का चित्र इस प्रकार से खींचा है, जिसमें रंगों की गहराई क्रमश: घनी होती जाती है और सफ़ेद से काले तक की सभी वर्ण छटाएँ आ गई हैं-
धौरी, घूमरी, राती, रौंछी, बोल बुलाइ चिह्नौरी।
पियरी, मौरी, गोरी, गैनी, खैरी, कजरी जेती।।
|
|
|
|
|