पृथ्वीराज रासो: Difference between revisions

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रासों में कथानक की शिथिलता, विश्रृंलता तथा असन्तुलित योजना भी अत्यधिक खटकती है। कथानक का जो एक क्षीण तन्तु है, वह भी बीच-बीच में विवाह, मृगया आदि के उबा देने वाले लम्बे वर्णनों के कारण टूट जाता है।  कथानक में सुनिश्चित योजना तथा समानुपातिक संघटन के अभाव का कारण कदाचित यह भी है कि उसके वर्तमान रूपान्तर में मूल रचना के अतिरिक्त प्रक्षेप भी अत्याधिक परिमाण में हुए हैं। अत: पृथ्वीराजरासो' उत्कृष्ट कोटि के महाकाव्यों की श्रेणी में रखें जाने के योग्य नहीं जान पड़ता।
रासों में कथानक की शिथिलता, विश्रृंलता तथा असन्तुलित योजना भी अत्यधिक खटकती है। कथानक का जो एक क्षीण तन्तु है, वह भी बीच-बीच में विवाह, मृगया आदि के उबा देने वाले लम्बे वर्णनों के कारण टूट जाता है।  कथानक में सुनिश्चित योजना तथा समानुपातिक संघटन के अभाव का कारण कदाचित यह भी है कि उसके वर्तमान रूपान्तर में मूल रचना के अतिरिक्त प्रक्षेप भी अत्याधिक परिमाण में हुए हैं। अत: पृथ्वीराजरासो' उत्कृष्ट कोटि के महाकाव्यों की श्रेणी में रखें जाने के योग्य नहीं जान पड़ता।


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Revision as of 06:41, 15 April 2010

पृथ्वीराजरासो / Prithviraj Raso

'पृथ्वीराजरासों' तथा 'आल्हाखण्ड' इस काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं। पृथ्वीराजरासों को हम साहित्यिक परम्परा का विकसनशील महाकाव्य और आल्हाखण्ड को लोक-महाकाव्य की संज्ञा दे सकते हैं। रासो का बृहत्तम रूपान्तर जो नागरीप्रचारिणी सभा से प्रकाशित है, 69 समय (सर्ग) का विशाल ग्रन्थ है। इसमें अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के जीवन-वृत्त के साथ सामन्ती वीर-युग की सभ्यता, रहन-सहन, मान-मर्यादा, ख़ान-पान तथा अन्य जीवन-विधियों का इतना ब्योरेवार और सही वर्णन हुआ है कि इसमें तत्कालीन समग्र युगजीवन अपने समस्त गुण-दोषों के साथ यथार्थ रूप में चित्रित हो उठा है।


अध्यात्म, राजनीति, धर्म, योग, कामशास्त्र, मन्त्र-तन्त्र, युद्ध, विवाह, मृगय, मन्त्रणा, दौत्य, मानवीय सौन्दर्य, संगीत-नृत्य, वन उपवन-विहार, यात्रा, पशु-पक्षी, वृक्ष, फल-फूल, पूजा-उपासना, तीर्थ-व्रत, देवता-मुनि, स्वर्ग, राज-दरबार, अन्त:पुर, उद्यान गोष्ठी, शास्त्रार्थ, वसन्तोत्सव तथा सामाजिक तथा सामाजिक रीति-रिवाज – तात्पर्य यह कि तत्कालीन जीवन का कोई पहलू ऐसा नहीं बचा है, जो रासों में न आया हो। किन्तु इन विषयों में भी युगप्रवृत्ति के अनुसार सबसे अधिक उभार मिला है युद्ध, विवाह, भोग विलास तथा मृगया के ही वर्णनों को और यही कारण है कि 'पृथ्वीराजरासो' में चारित्र्य की वह गरिमा नहीं आ पायी है, जो आदर्श महाकाव्य के लिए आवश्यक हैं। रासो के 65 वें समय में पृथ्वीराज की रानियों के नाम गिनायें गये हैं, जिनकी संख्या तेरह है। इनमें से केवल चार के विवाह उभय पक्ष की स्वेच्छा से हुए, शेष सबको बलात हरण किया गया था, जिनके लिए युद्ध भी करने पड़े थे। इन विवाहों के वर्णन रासों में अत्यधिक विस्तार से मिलते हैं, जिससे ज्ञात होता है कि ये ही उक्त महाकाव्य के प्रमुख विषय है। शहाबुद्दीन गौरी के आक्रमणों के समय पृथ्वीराज इतना विलासी हो गया था कि संयागिता के महल से बाहर निकलता ही नहीं था। उसकी सहायता के लिए रावल समर सिंह दिल्ली आकर ठहरते थे, किन्तु पृथ्वीराज को इसकी सूचना लेने की भी फुर्सत नहीं थी। प्रजा में कष्ट और असन्तोष बढ़ता गया। अन्त में वह शहाबुद्दीन द्वारा बन्दी बनाकर गज़नी ले जाया जाता है, जहाँ चंदबरदाई के संकेतों से गौरी का बिंधकर स्वयं भी मर जाता है। इस प्रकार रासो हमारे पतन और गम की कहानी है।


रासों में कथानक की शिथिलता, विश्रृंलता तथा असन्तुलित योजना भी अत्यधिक खटकती है। कथानक का जो एक क्षीण तन्तु है, वह भी बीच-बीच में विवाह, मृगया आदि के उबा देने वाले लम्बे वर्णनों के कारण टूट जाता है। कथानक में सुनिश्चित योजना तथा समानुपातिक संघटन के अभाव का कारण कदाचित यह भी है कि उसके वर्तमान रूपान्तर में मूल रचना के अतिरिक्त प्रक्षेप भी अत्याधिक परिमाण में हुए हैं। अत: पृथ्वीराजरासो' उत्कृष्ट कोटि के महाकाव्यों की श्रेणी में रखें जाने के योग्य नहीं जान पड़ता।